शून्य काल अभियान
संक्षिप्त परिचय
साल २०५७ — जब धरती पर समय की गति में असामान्य परिवर्तन होने लगे, घड़ियाँ उल्टा चलने लगीं, दिन के उजाले में रात की छाया उतर आई और कुछ शहरों में लोग अचानक वर्षों पीछे के युग में पहुँच गए, तब यह स्पष्ट हुआ कि कोई रहस्यमयी शक्ति समय-चक्र से छेड़छाड़ कर रही है। एक वैश्विक वैज्ञानिक संगठन, ‘कालमंत्र आयोग’, की रिपोर्ट के अनुसार भारत के लद्दाख क्षेत्र में स्थित प्राचीन बर्फीली घाटियों के नीचे एक छिपा हुआ केंद्र सक्रिय हो चुका है — शून्य काल केंद्र, जो पृथ्वी के कालगति तंत्र को प्रभावित कर रहा है। इस अराजकता से लड़ने के लिए बनाया गया एक विशेष दल — ‘शून्य काल अभियान’, जिसका नेतृत्व करता है एक पूर्व वायुसेना अफसर और भौतिकी वैज्ञानिक आरव प्रधान। यह कथा है समय से परे जाकर मानव अस्तित्व को बचाने की, एक ऐसी यात्रा की जो ना भूगोल जानती है, ना सीमा, ना भूत, ना भविष्य — बस एक ही लक्ष्य जानती है, काल को पुनः संतुलित करना।
भाग १: समय के चक्र में विकृति
दिल्ली, २० मई २०५७ — सुबह आठ बजे। संसद भवन में राष्ट्रीय सुरक्षा समिति की बैठक चल रही थी, जब अचानक घड़ियाँ बंद हो गईं, स्क्रीन पर तारीख पीछे सरकने लगी और कमरे की दीवारों पर वर्षों पुराने पोस्टर दिखने लगे। एक मिनट में सभी उपस्थित लोग स्वयं को २०४५ में महसूस करने लगे।
उसी समय मुंबई में समुद्र उल्टा बहने लगा और चेन्नई के स्कूलों में बच्चे अचानक बीस वर्ष बुजुर्ग दिखने लगे। यह कोई तकनीकी समस्या नहीं थी, यह काल की टूटन थी।
प्रधानमंत्री कार्यालय में वैज्ञानिकों और खुफिया अधिकारियों की आपात बैठक हुई। वहाँ एक ही नाम बार-बार उभरकर आया — आरव प्रधान।
भाग २: आरव प्रधान की वापसी
आरव प्रधान, एक समय में भारत के अग्रणी भौतिकी विशेषज्ञ थे। वायुसेना में सेवा देने के बाद उन्होंने काल-सिद्धांत और गुरुत्वाकर्षण तरंगों पर वर्षों शोध किया था। लेकिन उनकी अंतिम खोज — ‘कालगति बाधा बिंदु’ — को पागलपन कहकर खारिज कर दिया गया था, जिसके बाद वे स्वेच्छा से समाज से दूर लद्दाख में एक शोधशाला में रहने लगे।
जब अधिकारी उन्हें लेने पहुँचे, तो आरव बर्फ के बीच ध्यानमग्न थे। उन्होंने आँखें खोलीं और बिना पूछे कहा,
“वो जाग गया है, है ना? अब समय हमारे साथ नहीं, हमारे विरुद्ध चल रहा है।”
उन्होंने एक यंत्र दिखाया — ‘कालदर्पण’, जो समय की वास्तविक लय दिखाता था।
“यह अब दो भागों में बँट चुका है — एक जो तुम्हारे पास है, और एक जो शून्य काल केंद्र के भीतर सो रहा था… और अब जाग चुका है।”
भाग ३: शून्य काल अभियान का गठन
आरव ने प्रस्ताव रखा — एक वैज्ञानिक, एक सैनिक, एक पार्श्व संचार विशेषज्ञ और एक संस्कृत ग्रंथविद् का दल तैयार किया जाए। सरकार ने सहमति दी।
दल के सदस्य चुने गए —
मेघना राय — आर्मी स्पेशल यूनिट की प्रमुख, यंत्रचालन व विषम स्थिति विशेषज्ञ।
आरव प्रधान — दल के प्रमुख, भौतिकी वैज्ञानिक व कालदर्शन विद्वान।
ईशा रावल — एक अदृश्य संचार प्रणाली की विशेषज्ञ, जो मस्तिष्क-तरंगों के स्तर पर संवाद कर सकती थी।
वेदांत शास्त्री — एक युवा वेदज्ञ और इतिहासशोधक, जिसने काल के सिद्धांतों को वैदिक भाषा में पढ़ा और समझा था।
अभियान को नाम दिया गया — शून्य काल अभियान, और उन्हें ७२ घंटों का समय दिया गया।
भाग ४: बर्फ के नीचे छिपा केंद्र
लद्दाख की सबसे ऊँची चोटी ‘त्रिकाल श्रंग’ के नीचे, हजारों वर्षों से जमी बर्फ की परतों के भीतर स्थित था वह केंद्र। वैदिक ग्रंथों में इसे ‘कालसंयम कुञ्ज’ कहा गया था। कहा जाता था कि प्राचीन ऋषियों ने इसे पृथ्वी की स्थायित्व के लिए एक ताले की तरह रचा था — एक ऐसा तंत्र जो केवल महान विपत्ति आने पर जागृत हो।
अब यह जाग गया था।
आरव ने दल को चेताया —
“यह कोई युद्ध नहीं, यह एक द्रव्य और ऊर्जा का संघर्ष है, जिसमें हमारा अस्तित्व दाँव पर है। हम यहाँ केवल यंत्र लेकर नहीं, संकल्प लेकर जा रहे हैं।”
भाग ५: कालविक्षेप का सामना
केंद्र के भीतर प्रवेश करते ही समय की रेखाएँ विकृत हो गईं।
मेघना को अपने बचपन की झलक दिखने लगी, ईशा को भविष्य की संभावनाएँ।
वेदांत का चित्त कांप उठा,
“यह स्थान हमारे मस्तिष्क में काल-छवियाँ डाल रहा है। जो अस्थिर है, वह भटक जाएगा।”
आरव ने ‘कालदर्पण’ यंत्र चालू किया, जिससे वास्तविकता और भ्रम में भेद हो सका।
भीतर, केंद्र के मध्य में था एक गोलाकार कक्ष, जिसके चारों कोनों में धात्विक स्तंभ और मध्य में एक धधकता हुआ कालवृत्त था — यह ‘कालबिंदु यंत्र’ था।
पर यह यंत्र अब संतुलन खो चुका था, और काल की ऊर्जा बहकर पृथ्वी पर बिखर रही थी।
भाग ६: विघटन और बलिदान
आरव ने कहा —
“हमें इस यंत्र को पुनः संतुलन में लाना होगा, नहीं तो यह काल विस्फोट करेगा, और समस्त सभ्यता को समय के गर्भ में समा देगा।”
परंतु यह प्रक्रिया किसी बलिदान के बिना संभव नहीं थी।
‘कालबिंदु यंत्र’ को पुनः स्थिर करने के लिए उसमें से एक मस्तिष्क को समर्पित करना था — एक ऐसा मस्तिष्क जो समय को समझता हो और त्याग की भावना रखता हो।
आरव तैयार थे। पर ईशा ने हाथ रोक लिया —
“आपने हमें यहाँ तक पहुँचाया, अब समय हमें अपनी भूमिका निभाने का अवसर दे।”
वेदांत ने वैदिक मंत्रोच्चार से यंत्र को क्रियाशील किया।
मेघना ने यंत्र के चारों ओर विद्युत चुंबक बिंदु स्थापित किए।
ईशा, अपने मानसिक संप्रेषण प्रणाली के माध्यम से ‘कालदर्पण’ से जुड़ गई और अपनी चेतना समर्पित कर दी।
कुछ ही क्षणों में कालबिंदु यंत्र शांत हो गया।
पृथ्वी पर समय की गति सामान्य होने लगी।
ईशा… वहीं रह गई — यंत्र के भीतर, अब वह काल की रक्षक चेतना बन चुकी थी।
भाग ७: लौटते हुए
जब दल वापस बाहर आया, तो बाहर का आकाश स्वच्छ था। बर्फ धीरे-धीरे पिघल रही थी। घड़ियाँ सही चलने लगी थीं। लोग फिर से आज के दिन में लौट आए थे।
सरकार ने इस गुप्त अभियान को सार्वजनिक नहीं किया, परंतु आरव ने एक पुस्तक लिखी — “जब समय स्वयं से लड़ पड़ा”, जिसमें उन्होंने बिना नाम लिए इस संघर्ष को आने वाली पीढ़ियों के लिए संरक्षित किया।
मेघना और वेदांत ने ‘कालशाला’ नामक एक संस्थान की स्थापना की, जहाँ युवा अब समय, ऊर्जा और मानव चेतना के संतुलन पर अध्ययन करने लगे।
अंतिम समापन
‘शून्य काल अभियान’ एक ऐसी गाथा है, जो यह सिद्ध करती है कि समय केवल एक गति नहीं, एक चेतना है — और जब वह टूटता है, तो सृष्टि काँप उठती है। परंतु जब कोई मनुष्य अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर इस चेतना की रक्षा करता है, तभी कालवृत्त पूर्ण होता है। यह कहानी भले ही भविष्य में घटित हुई, परंतु यह हर उस युवा को समर्पित है जो अंधकार में भी अपनी भूमिका नहीं भूलता।
समाप्त।