सत्य की अग्नि परीक्षा
संक्षिप्त सारांश:
यह एक ऐसे युवक की कहानी है जो भौतिक सुख-सुविधाओं और जीवन की भाग-दौड़ में आत्मा की शांति खो चुका है। एक रहस्यमयी साधु से उसकी भेंट होती है जो उसे आत्म-चिंतन, त्याग और भीतर की यात्रा के मार्ग पर ले जाता है। इस यात्रा में वह अनेक भ्रमों, प्रलोभनों और दुखों से गुजरता है, लेकिन अंत में वह सच्चे ज्ञान और शाश्वत शांति को प्राप्त करता है। यह कथा मानव आत्मा के भीतर छिपे उस प्रकाश की खोज है जिसे पाने के लिए पूरी जीवनयात्रा समर्पित होती है।
कहानी:
राजपुर नगर में रहने वाला अर्जुन एक सफल व्यवसायी था। उसके पास धन, वैभव, बड़ा घर, गाड़ी, नौकर-चाकर सब कुछ था। परंतु उसके भीतर एक खालीपन था जिसे वह समझ नहीं पाता था। हर रात उसकी आँखों में नींद नहीं होती थी। वह अपने जीवन को मशीन की तरह जी रहा था, जिसमें न कोई आनंद था, न उद्देश्य।
एक दिन वह काम से थका हुआ राजपुर से दूर एक शांत स्थान पर चला गया। एक पुरानी धूलभरी सड़क पर चलते हुए, जंगल के पास एक पत्थर पर बैठा हुआ एक वृद्ध साधु दिखाई दिया। साधु का शरीर तो वृद्ध था, पर उसकी आँखों में अजीब चमक थी, जैसे भीतर से कोई तेज़ जल रहा हो।
अर्जुन ने सोचा कि यह तो कोई साधारण साधु नहीं हो सकता। वह उनके पास गया और बोला, “महाराज, मुझे शांति चाहिए। मेरे पास सब कुछ है, फिर भी जीवन खाली लगता है।”
साधु मुस्कराए। बोले, “शांति पाने के लिए भीतर झाँकना पड़ता है। जो तू बाहर खोज रहा है, वह तेरे भीतर ही है।”
“परंतु मैं भीतर कैसे जाऊँ?” अर्जुन ने घबरा कर पूछा।
“सत्य की अग्नि परीक्षा से गुजरना होगा,” साधु ने उत्तर दिया।
अर्जुन को यह वाक्य समझ नहीं आया, पर उसने साधु से मार्गदर्शन माँगा।
साधु ने उसकी ओर देखा और कहा, “यदि तू सचमुच तैयार है, तो आज से तुझे हर दिन एक नई परीक्षा देनी होगी। ये परीक्षा तेरे भीतर के भ्रम, मोह, क्रोध और अहंकार को जला देंगी। केवल तब तू आत्मा के सत्य को समझ पाएगा।”
अर्जुन ने सहमति में सिर हिलाया।
पहली परीक्षा ‘त्याग’ की थी। साधु ने कहा, “तू सात दिन तक किसी से झूठ नहीं बोलेगा, किसी को धोखा नहीं देगा, और किसी भी प्रकार का लाभ नहीं सोचेगा। हर कार्य केवल सेवा के लिए करेगा।”
अर्जुन ने सात दिन तक एक निर्धन व्यक्ति की सेवा की। वह अपने नगर के सबसे धनी लोगों में गिना जाता था, लेकिन पहली बार उसने बिना किसी स्वार्थ के काम किया। उसे आश्चर्य हुआ कि सेवा में उसे जो आनंद मिला, वह व्यापार में नहीं मिला था।
दूसरी परीक्षा ‘मौन’ की थी। साधु ने कहा, “अब तू सात दिन मौन रहेगा। तू किसी से कुछ नहीं बोलेगा, केवल अपने मन के विचारों को देखेगा।”
अर्जुन के लिए यह सबसे कठिन था। मौन के भीतर उसके भीतर के शोर स्पष्ट सुनाई देने लगे। वह अपने भीतर की बेचैनी, घृणा, जलन और लालच से पहली बार मिला। सातवें दिन वह रो पड़ा। उसे लगा जैसे उसके भीतर कोई मैल जमा था जो अब बाहर निकल रहा है।
तीसरी परीक्षा ‘भय से मुक्ति’ की थी। साधु ने उसे एक रात जंगल में अकेला भेजा। वहाँ जंगली जानवरों की आवाज़ें थीं, अंधेरा था, डरावना सन्नाटा था। लेकिन अर्जुन ने अपने डर का सामना किया। उसने सोचा, “मेरा शरीर नष्ट हो सकता है, पर आत्मा अमर है।”
उस रात अर्जुन को पहली बार अनुभूति हुई कि वह केवल यह शरीर नहीं है। वह कुछ और है – एक चेतना, एक प्रकाश।
अगले दिन जब वह साधु के पास लौटा, तो उसकी आँखों में अलग चमक थी।
साधु मुस्कराए, “अब तू अंतिम परीक्षा के लिए तैयार है – ‘अहम् का विसर्जन’। इस परीक्षा में तुझे अपने सभी नाम, पहचान, प्रतिष्ठा और स्मृतियों को त्यागना होगा। तू अर्जुन नहीं रहेगा, केवल एक साधक रहेगा।”
अर्जुन कुछ पल चुप रहा। फिर उसने धीरे से अपना बटुआ, घड़ी, मोबाइल और वस्त्र साधु के सामने रख दिए। उसने कहा, “अब मैं कुछ नहीं हूँ। केवल एक जिज्ञासु आत्मा हूँ।”
साधु ने उसे गले से लगा लिया। बोले, “अब तू जान गया है कि शांति बाहर नहीं, भीतर है। सत्य बाहर नहीं, आत्मा में है। जो भीतर की आँख से देखता है, वही वास्तव में देखता है।”
उस दिन से अर्जुन ने अपना व्यवसाय एक ट्रस्ट को सौंप दिया। वह हिमालय की ओर चला गया, और वर्षों तक साधना करता रहा। वह अब ‘स्वामी शांतानंद’ के नाम से जाना जाने लगा। लोग दूर-दूर से उनके पास जीवन का अर्थ पूछने आते।
एक दिन एक युवक उनके पास आया, वही सवाल लिए – “मेरे पास सब कुछ है, पर जीवन में आनंद नहीं है।”
स्वामी शांतानंद मुस्कराए, और बोले – “शांति पाने के लिए भीतर झाँकना पड़ता है। जो तू बाहर खोज रहा है, वह तेरे भीतर ही है…”
समाप्त