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सपनों की कीमत

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सपनों की कीमत

संक्षिप्त विवरण:
यह कहानी है एक छोटे शहर के युवक ‘विवेक’ की, जिसके सपनों और ज़िम्मेदारियों के बीच बसी है एक लंबी लड़ाई। यह कहानी बताती है कि कैसे एक मध्यमवर्गीय परिवार का एक साधारण लड़का अपनी प्रतिभा, मेहनत और आत्मसम्मान के सहारे संघर्ष की चट्टानों को पार करता है। लेकिन वह रास्ता इतना सीधा नहीं होता। रिश्तों की गांठें, समाज के ताने, भ्रष्ट व्यवस्था और अपने ही भीतर की टूटन – सब मिलकर विवेक को बार-बार गिराते हैं। पर हर बार वह खड़ा होता है – क्योंकि उसे मालूम है कि सपनों की कीमत बहुत बड़ी होती है, पर उन्हें पूरा करने का संतोष उससे भी बड़ा।


कहानी:

भाग 1: एक छोटा घर, बड़ी उम्मीदें
इलाहाबाद के बाहरी क्षेत्र में एक पुराना मोहल्ला था — अशर्फीगंज। वहीं एक दो कमरों का किराए का मकान था, जिसमें रहते थे रामसिंह शर्मा, उनकी पत्नी सरला देवी, और उनका इकलौता बेटा विवेक। रामसिंह रेलवे के रिटायर्ड बाबू थे, जिनकी पेंशन से मुश्किल से घर चलता था। सरला देवी घर पर ही रहतीं, कुछ-कुछ सिलाई-कढ़ाई का काम कर लेती थीं।

विवेक बी.टेक. कर चुका था। अच्छे अंकों से। लेकिन नौकरी नहीं मिली। तीन बार दिल्ली गया, इंटरव्यू दिए, दो बार रिजेक्ट हुआ और एक बार ऑफर मिला — मगर इतनी कम सैलरी कि रहने-खाने का भी खर्च न निकले। विवेक ने वह नौकरी ठुकरा दी।

“क्या फ़ायदा ऐसी नौकरी का, जिसमें घर को कुछ भेज भी न सकूं?” — उसने मां से कहा था।

सरला देवी चुप थीं। उन्होंने बस उसके सिर पर हाथ फेरा और रसोई में चली गईं। उस रात दाल में पानी कुछ ज़्यादा था।

भाग 2: मोहल्ले की मानसिकता और विवेक की खामोशी
अशर्फीगंज का सबसे बड़ा शौक था — दूसरों की ज़िंदगी में ताक-झांक। जब विवेक घर पर दिखता, तो पड़ोसिनें पूछतीं,
“कब जा रहे हो दिल्ली दोबारा?”
“इतनी पढ़ाई का क्या फ़ायदा हुआ?”
“आजकल तो हमार छोटका भी नौकरी कर रहा है कॉल सेंटर में!”

विवेक मुस्कुरा देता, मगर अंदर ही अंदर उसकी आत्मा छलनी होती जाती। वह घंटों छत पर बैठा, छतरी के नीचे किताबें पढ़ता — कभी टेक्निकल, कभी साहित्य। कहीं तो कुछ रास्ता खुलेगा…

भाग 3: एक लड़की, एक दोस्त, और एक विकल्प
विवेक की पुरानी सहपाठी और बचपन की दोस्त ‘अदिति’ अब लखनऊ में बैंक में काम करती थी। एक दिन उसका फ़ोन आया —
“तुम कुछ फ्रीलांसिंग क्यों नहीं करते? टेक्निकल कंटेंट, डिजिटल ट्रेनिंग, ऑनलाइन प्रोजेक्ट्स – इंटरनेट पर दुनिया है।”

विवेक को यह सब सपना-सा लगा। उसके पास लैपटॉप भी नहीं था, बस एक पुराना स्मार्टफोन। लेकिन अदिति ने कहा –
“मैं तुम्हारे लिए एक पुराना लैपटॉप भिजवा रही हूं। कुछ मत सोचना, इसे दोस्ती समझना।”

विवेक ने बहुत टालने की कोशिश की, मगर अदिति की ज़िद हार नहीं मानती। कुछ दिन बाद एक डिलीवरी बॉय, एक पुराना लेकिन साफ-सुथरा लैपटॉप देकर चला गया।

उसी दिन से विवेक ने ऑनलाइन दुनिया में पहला क़दम रखा। इंटरनेट कैफे से सीखा कि फ्रीलांसिंग क्या होती है। यूट्यूब से विडियो देखकर डिजिटल मार्केटिंग समझी। धीरे-धीरे, रातें जागते हुए गुज़रने लगीं।

भाग 4: पहली कमाई, पहला झूठ और पहली लड़ाई
तीन महीने की मेहनत के बाद, पहली बार विवेक के अकाउंट में ₹3,000 आए — एक अमरीकी क्लाइंट की तरफ से। वह दिन उसके लिए त्योहार से कम नहीं था। उसने घर में मिठाई मंगाई। मगर जब मां ने पूछा –
“पैसे कहाँ से आए?”
तो उसने कहा –
“एक दोस्त ने लौटाए पुराने पैसे।”

क्योंकि उसे डर था कि पापा को यह डिजिटल काम समझ में नहीं आएगा।

मगर यही झूठ अगले महीने पकड़ा गया। जब पिता ने पूछा कि बेटा क्या करता है, तो विवेक ने कहा –
“ऑनलाइन क्लाइंट्स के लिए काम करता हूं।”

रामसिंह नाराज़ हो गए।
“इसे भी कोई काम कहते हैं? घर बैठकर इंटरनेट चलाना! शर्म नहीं आती?”

विवेक ने चुपचाप अपना खाना खाया और रातभर कुछ नहीं बोला। मगर अगली सुबह वह पहले से ज़्यादा देर तक लैपटॉप पर काम करता रहा।

भाग 5: सपनों के बदले कुर्बानी
कुछ ही महीनों में उसकी आमदनी ₹15,000 तक पहुंच गई थी। लेकिन उसी समय, उसकी मां की तबीयत बिगड़ने लगी। डायबिटीज़ और बी.पी. का मामला गंभीर हो गया। इलाज महंगा था। विवेक ने एक क्लाइंट का लंबा प्रोजेक्ट छोड़ दिया, ताकि मां को अस्पताल ले जा सके।

अस्पताल में मां ने उसका हाथ पकड़कर कहा –
“तू जो कर रहा है, उसे मत छोड़। पापा तुझे नहीं समझते, लेकिन मैं तुझे जानती हूं। तू सही कर रहा है, बेटा।”

विवेक की आंखें भर आईं। वह उस रात अस्पताल की बेंच पर बैठा रहा और एक नई प्रेरणा के साथ सुबह की प्रतीक्षा करता रहा।

भाग 6: समाज की जीत नहीं होती हमेशा
अब विवेक का काम बढ़ता गया। दिल्ली की एक कंपनी ने उसे ऑफ़र भेजा – रिमोट वर्क के लिए ₹45,000 महीना। उसने स्वीकार किया।

अब पापा भी थोड़े-थोड़े नरम पड़ने लगे थे। मगर मोहल्ले वालों की जलन भी बढ़ गई। एक दिन शरारतवश किसी ने बिजली की लाइन काट दी — घर अंधेरे में डूब गया।

पर विवेक ने हार नहीं मानी। उसने पड़ोस की छत से वाई-फाई चलाया, पावरबैंक से लैपटॉप चार्ज किया और डेडलाइन पर काम पूरा किया।

भाग 7: सम्मान की वापसी और नया सूरज
एक दिन स्थानीय अख़बार में एक लेख छपा – “अशर्फीगंज का बेटा बना डिजिटल हीरो” – विवेक शर्मा की कहानी। साथ में तस्वीर थी – उसकी, मां की और पापा की।

रामसिंह शर्मा ने अख़बार पढ़ा और पहली बार बोले –
“आज अगर मैं ऑफिस में होता, तो यह अख़बार सबको दिखाता।”

विवेक ने सिर झुका लिया। मां मुस्कुरा रही थीं — पूरी आत्मा से।

अंतिम दृश्य: सपना जो अब यथार्थ है
अब विवेक ₹80,000 महीना कमाता है। अदिति और विवेक की सगाई हो चुकी है। उसने नया मकान लिया है – किराए पर नहीं, अपना। मगर पुराने मकान की एक दीवार उसने वैसे ही रखी है – जिस पर अब भी वह छतरी टंगी है, जिसके नीचे वह कभी सपना देखा करता था।


अंतिम पंक्तियाँ:
सपने देखना आसान है, पर उन्हें जीना कठिन। समाज ताने मारेगा, व्यवस्था रोकेगी, घरवाले नहीं समझेंगे, पर जब आप थकने के बावजूद चलते रहते हैं — तब सपने सिर्फ पूरे नहीं होते, वे सम्मान में बदल जाते हैं। यही सच्चाई है… सपनों की कीमत यही है।

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