सपनों वाला स्कूटर
संक्षिप्त विवरण:
यह कहानी है 17 वर्षीय कौस्तुभ राजदान की, जो भोपाल के एक साधारण परिवार से है और जिसका सपना है – एक ऐसा स्कूटर जो वह अपने दम पर खरीदे, जिससे वो शहर की हर गली में अपने हुनर और हँसी को दौड़ा सके।
‘सपनों वाला स्कूटर’ एक हल्की-फुल्की, लेकिन गहराई से भरी हुई कहानी है, जहाँ पढ़ाई, दोस्ती, परिवार और आत्मनिर्भरता के बीच एक किशोर लड़के की यात्रा दिखाई गई है। यह कहानी उन युवाओं की है जो छोटे-छोटे सपनों को भी बड़ी लगन से देखते हैं, और उन्हें साकार करने के लिए हर मज़ा, हर मेहनत, और हर संघर्ष को मुस्कराकर अपनाते हैं। यह कहानी ऊर्जा, प्रेरणा और खुशी से भरी है — एक सच्चा किशोर जीवन उत्सव।
पहला भाग – पुराना साइकल, नया सपना
भोपाल के अशोका गार्डन इलाके की सँकरी गलियों में सुबह-सुबह एक साइकिल की घंटी गूंजती थी — “ट्रिंग ट्रिंग!”
वो कौस्तुभ राजदान था — स्कूल यूनिफॉर्म में, बाईं जेब में टूटी हुई पेन की क्लिप, और पीठ पर लटका भारी बैग। उसकी साइकिल की सीट पर मोटा तकिया बंधा था, क्योंकि सीट की स्प्रिंग टूट चुकी थी।
हर रोज़ स्कूल पहुँचते हुए वह एक मोड़ पर रुकता और उस शोरूम की तरफ देखता जहाँ नए चमचमाते स्कूटर कतार में खड़े होते थे।
“एक दिन… एक दिन मैं इस शोरूम से स्कूटर खुद खरीदूँगा,” वह बुदबुदाता।
उसका सपना स्कूटर से शुरू होता और उसके साथ गली के हर बच्चे को बैठाकर एक-एक कर शहर घुमाने तक जाता।
दूसरा भाग – पापा की जेब और माँ की हँसी
घर पर पापा बिजली विभाग में लाइनमैन थे — दिनभर धूप, बारिश में काम करते और शाम को बस में लटककर लौटते।
माँ टिफ़िन बनाने का छोटा-सा काम करती थीं। हर सुबह चार बजे उठतीं और “आलू पराठा – दही” का डब्बा तैयार करतीं।
“स्कूटर चाहिए?” पापा ने एक शाम को पूछा, जब कौस्तुभ ने फोटो दिखाया।
“हाँ पापा… लेकिन मैं आपसे पैसे नहीं लूँगा,” कौस्तुभ ने कहा।
पापा मुस्कराए, “अरे वाह! तो तुम अब अंबानी बन गए क्या?”
“नहीं पापा, लेकिन मुझे साबित करना है कि मैं कुछ खुद कर सकता हूँ।”
माँ हँसते हुए बोलीं, “अभी तक तो दूध गरम करना नहीं आता, और अब ये स्कूटर खरीदने चला है।”
कौस्तुभ ने शरारती मुस्कान दी, “दूध गरम नहीं, स्कूटर गरम करूँगा!”
तीसरा भाग – छुट्टियों में चुपचाप काम
गर्मियों की छुट्टियाँ शुरू हुईं। बाकी बच्चे मामा के घर, पहाड़ों की सैर और वीडियो गेम में खो गए, पर कौस्तुभ ने कुछ अलग ठाना।
उसने पास के मॉल में पार्ट-टाइम पैकिंग असिस्टेंट की नौकरी पकड़ ली।
दिन में चार घंटे – गत्ते में माल भरना, रसीदें लगाना, स्टिकर चिपकाना।
शुरू में हाथ छिल गए, पीठ में दर्द हुआ। पर रोज़ रात 9 बजे वह अपनी डायरी में लिखता —
“आज ₹350 और जमा। अब बचे ₹28,650।”
उसने खाना कम कर दिया, आइसक्रीम छोड़ी, मोबाइल का डाटा रिचार्ज बंद कर दिया।
हर दिन एक कदम था उस स्कूटर के पास।
चौथा भाग – दोस्त जो हँसे और फिर साथ हो गए
शुरुआत में जब कौस्तुभ ने यह बात अपने दोस्तों को बताई, तो आदित्य बोला,
“तू क्या सपना देख रहा है? इतने पैसे कहाँ से आएँगे?”
पर जैसे ही दोस्तों ने उसे वाकई काम करते देखा — पसीने में भीगते, धूप में साइकिल चलाते, थका लेकिन मुस्कराता — तो सबका रवैया बदल गया।
अदिति, उसकी सहपाठी, बोली —
“तू सच में कर दिखाएगा, कौस्तुभ। अगर तू जीत गया, तो हर युवा को लगेगा कि सपना पापा की सैलरी से नहीं, अपने हौसले से पूरा होता है।”
तब से सभी दोस्त उसका साथ देने लगे — कोई उसका खाना लाता, कोई रात को पढ़ाई में मदद करता।
पाँचवाँ भाग – एक फैसला जो मुश्किल था
पाँच महीने बीते। उसके पास ₹23,400 जमा हो चुके थे।
स्कूटर की कीमत थी ₹28,000।
लेकिन तभी अचानक माँ बीमार हो गईं। डॉक्टर ने कहा — कुछ दवाएँ नियमित देनी होंगी।
कौस्तुभ ने बिना सोचे, अपनी सारी जमा पूंजी माँ की दवाइयों में लगा दी।
दोस्तों ने कहा, “तू स्कूटर से दो कदम दूर था यार!”
कौस्तुभ बोला —
“अगर स्कूटर लूँ और माँ चल न सकें, तो क्या फ़ायदा? स्कूटर फिर आएगा, माँ नहीं।”
उस दिन पहली बार उसके पापा ने उसके सिर पर हाथ रखकर कहा —
“तू अब बच्चा नहीं रहा, बेटा… तू हमारे घर का गर्व है।”
छठा भाग – वो कॉल जिसने सब बदल दिया
कुछ हफ्तों बाद स्कूल में विज्ञान प्रदर्शनी हुई। कौस्तुभ ने “सोलर पंखा” बनाया — एक ऐसा छोटा यंत्र जो किसी भी साइकिल पर लगाकर बिना बिजली के पंखा चला सकता था।
प्रिंसिपल ने उसका मॉडल देखकर भोपाल की स्टार्टअप काउंसिल में भेजा।
वहाँ उसके आइडिया को सराहा गया। उसे ₹15,000 की यूथ इनोवेशन ग्रांट मिली।
उसने वह रकम सीधा बैंक में जमा की, साथ में फिर से काम करना शुरू किया।
एक सुबह वह अपनी पुरानी साइकिल से निकला और वही शोरूम पहुँचा जहाँ सालभर पहले सिर्फ देखा करता था।
विक्रेता ने पूछा —
“कैश या किस्त?”
कौस्तुभ ने मुस्कराकर कहा —
“मेहनत का सीधा भुगतान है, साहब।”
अंतिम भाग – अब हर गली मुस्कराती है
आज कौस्तुभ राजदान अपने स्कूटर से हर सुबह मोहल्ले के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने जाता है। उसने एक छोटी-सी “यूथ क्लास” शुरू की है जहाँ वह बच्चों को विज्ञान और जीवन दोनों सिखाता है।
उसका स्कूटर अब सपनों का वाहन है — उस पर लिखा है हाथ से बना नाम:
“उम्मीद-7”
जब कोई उससे पूछता है —
“कैसे कर लिया तूने ये सब?”
तो वह हँसते हुए कहता है —
“छोटा सपना हो या बड़ा, बस इतना तय कर लो कि तुम खुद को कभी छोटा मत समझो।”
समाप्त
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