साइकिल की घंटी और नीले जूते
संक्षिप्त विवरण:
यह कहानी है यश बर्वे की — एक 15 वर्षीय शांत और समझदार किशोर, जो पुणे के एक पुराने कॉलोनी इलाके में अपने माता-पिता और छोटी बहन के साथ रहता है। उसे पुरानी चीज़ों से लगाव है — पुरानी किताबें, पुरानी तस्वीरें और उसकी सबसे प्यारी चीज़ — उसकी पुरानी नीली साइकिल। स्कूल तक का उसका सफ़र रोज़ वही होता है — वही मोड़, वही किराना दुकान, वही पार्क के बाहर का चायवाला।
पर एक दिन, जब यश को स्कूल के नाटक समूह में बिना वजह निकाल दिया जाता है, वह भीतर से टूट जाता है। तभी उसकी साइकिल उसे ऐसे लोगों और अनुभवों से मिलवाती है, जो उसके जीवन को बदल देते हैं।
‘साइकिल की घंटी और नीले जूते’ एक सकारात्मक, विचारशील और प्रेरणादायक किशोर-कथा है जो यह दर्शाती है कि जब हम रोज़मर्रा की दुनिया को नये नज़रिये से देखना शुरू करते हैं, तब बदलाव शुरू होता है।
पहला भाग – नीली साइकिल और वही रास्ता
यश बर्वे की दुनिया सीधी-सादी थी। हर सुबह वह अपनी पुरानी नीली साइकिल से स्कूल जाता था — जो कभी उसके मामा की थी। साइकिल की घंटी अब थोड़ी मंद हो चुकी थी, ब्रेक थोड़े ढीले, पर यश के लिए यह उसकी दुनिया की सबसे कीमती चीज़ थी।
“नई साइकिल क्यों नहीं लेते?” स्कूल के दोस्त पूछते।
“ये नई से बेहतर है,” यश जवाब देता।
सड़कें वही थीं, मोड़ वही, पर हर बार यश उन्हें अलग-अलग अंदाज़ में देखता। किसी दिन धूप उसके कंधे पर गीत गाती थी, तो किसी दिन हवा उसके बालों में खेलती थी।
पर उसका सबसे प्यारा पड़ाव था — स्कूल के आगे वाला चायवाले का ठेला। वहाँ काम करता था राजू, उसकी उम्र लगभग 17 होगी, पर उसकी आँखों में किताबों जैसी गहराई थी।
दूसरा भाग – जब नाटक समूह से निकाला गया
इस साल स्कूल में ‘वार्षिक सांस्कृतिक सप्ताह’ था और यश ने नाटक समूह के लिए ऑडिशन दिया था। वह उत्साहित था — यह पहली बार था जब उसने खुद से किसी चीज़ के लिए पहल की थी।
पर तीन दिन बाद शिक्षक ने सूची पढ़ते हुए उसका नाम नहीं लिया।
“सर, मेरा नाम नहीं है?”
“तुम में अभिनय की आग नहीं दिखी, यश। दूसरों ने बेहतर किया।”
यश चुपचाप बाहर आ गया। वह टूटा नहीं था, पर भीतर एक खालीपन महसूस हो रहा था।
राजू ने देखा — “क्या हुआ भाई?”
यश ने सिर हिलाया — “कुछ नहीं।”
राजू ने उसकी साइकिल की घंटी बजाई और बोला —
“जो आवाज़ तू दूसरों में ढूंढ रहा है, वो तेरे भीतर है। कभी-कभी उसे सुनने के लिए थोड़ा दूर जाना पड़ता है।”
तीसरा भाग – नीली साइकिल का नया रास्ता
अगले दिन यश ने तय किया कि वह स्कूल जाने के लिए एक अलग रास्ता अपनाएगा।
वह गलियों से, पुराने मंदिरों के रास्तों से, छोटी बस्तियों से होकर गुज़रा।
रास्ते में एक जगह उसे कुछ बच्चे दिखे — छत के बिना एक झोपड़ी में, लकड़ी की पट्टी पर बैठे। एक युवती उन्हें कुछ सिखा रही थी।
यश रुका।
“क्या ये कोई स्कूल है?” उसने पूछा।
“हाँ, हमारी छोटी-सी कोशिश है,” युवती मुस्कराई — “मैं नेहा दीदी हूँ, और ये बच्चे स्कूल नहीं जा सकते, इसलिए हम यहीं पढ़ते हैं।”
नेहा ने पूछा — “क्या तुम इन बच्चों को कुछ सिखा सकते हो? जैसे, कोई कविता, कोई कहानी?”
यश चौंका, पर बोला — “हाँ, शायद… मैं कोशिश कर सकता हूँ।”
चौथा भाग – जब अभिनय सच्चा लगा
यश ने बच्चों को अपनी पुरानी नाटक स्क्रिप्ट सुनाई —
“एक राजा जो अपनी आवाज़ खो बैठा था, पर जनता ने उसे फिर से बोलना सिखाया।”
बच्चों ने ताली बजाई। उन्होंने राजा, मंत्री और पहरेदार बनने की ज़िद की।
अगले दो दिन यश रोज़ वहाँ गया, बच्चों को अभिनय सिखाया, खुद संवाद बोले, और जब वह ‘राजा’ का किरदार निभा रहा था — वह खुद को सच में राजा जैसा महसूस कर रहा था।
नेहा दीदी ने एक दिन कहा —
“तुम्हारे भीतर जो कहानी है, वो मंच की नहीं, ज़िंदगी की है।”
पाँचवाँ भाग – राजू की कहानी
एक शाम राजू ने कहा —
“पता है, यश, मैंने भी एक बार स्कूल में नाटक में भाग लिया था। लेकिन मेरे पापा के इंतकाल के बाद मैं पढ़ाई छोड़कर यहीं आ गया।”
“तो तुमने फिर कभी कोशिश नहीं की?” यश ने पूछा।
“हर बार जब मैं तुम्हारी साइकिल की घंटी सुनता हूँ न, तो लगता है जैसे पुराना सपना फिर से बज रहा है।”
यश चुप रहा, पर उस रात उसने तय किया — वह राजू के लिए कुछ करेगा।
छठा भाग – नीली साइकिल मंच पर
वार्षिक सप्ताह का अंतिम दिन आया।
यश मंच के कोने में खड़ा था — दर्शक बनकर नहीं, मार्गदर्शक बनकर।
उसने नेहा दीदी के बच्चों के लिए अनुमति ली — और छोटे मंच पर उन्होंने ‘राजा की आवाज़’ नामक नाटक खेला।
राजू उसमें ‘संदेशवाहक’ बना था — छोटा-सा रोल, पर उसकी आँखों में चमक थी।
पूरे हॉल में ताली बज उठी।
प्रधानाचार्य ने कहा —
“यश, तुम मंच पर नहीं थे, पर तुमने मंच को गहराई दी।”
अंतिम भाग – साइकिल अब सिर्फ सवारी नहीं रही
समर के अंतिम दिन, यश फिर उसी पुराने रास्ते पर अपनी नीली साइकिल लेकर निकला।
पर अब घंटी पहले से तेज़ बज रही थी, रास्ते ज़्यादा खुले लग रहे थे, और वह खुद को हल्का महसूस कर रहा था।
नेहा दीदी ने उसे एक पत्र दिया —
“तुम सिर्फ बच्चों को नाटक नहीं सिखा रहे थे, तुम उन्हें आत्मविश्वास सिखा रहे थे। यह उनकी ज़िंदगी का पहला मंच था।”
राजू अब स्थानीय युवाओं के साथ मिलकर ‘सड़क थिएटर’ की शुरुआत कर चुका था — और उसका पहला नाटक था —
“जो साइकिल घंटी से शुरू हुआ।”
यश ने अपनी डायरी में लिखा —
“मैं अब किसी सूची में नाम चाहता ही नहीं। मैं अब खुद को उस मंच पर देखता हूँ, जहाँ मेरी साइकिल मुझे लेकर जाती है — हर दिन, हर मोड़, हर नई कहानी में।”
समाप्त
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