अंतरिक्ष योद्धा वायुमंत और स्वर्णग्रह की अग्नि
संक्षिप्त विवरण:
इस बार वायुमंत का सामना होता है एक विलक्षण ग्रह से जो सोने की तरह चमकता है, परंतु उसकी सुंदरता के पीछे छिपा है एक विनाशकारी रहस्य — स्वर्णग्रह, जहाँ अग्नि कभी बुझती नहीं और हर आग एक चेतना है। पृथ्वी की कक्षा में प्रवेश करने से ठीक पहले वायुमंत को पता चलता है कि यह ग्रह नहीं, एक जीवित यंत्र है जो हर सभ्यता को भस्म करने के लिए संचालित किया गया था। केवल वैदिक ऊर्जा और चेतन मन की शक्ति ही इसे रोक सकती है।
कहानी:
प्रारंभ:
साल 3075, पृथ्वी की कक्षा में एक नया खगोलीय पिंड दिखाई देता है — चमकता हुआ, स्वर्णिम, अत्यंत सुंदर। खगोलशास्त्री इसे “अलौकिक उपग्रह” कहते हैं। परंतु जल्द ही उसके संपर्क में आने वाले उपग्रह जलने लगते हैं। वैज्ञानिक उसे ग्रह नहीं, अग्नि-शक्ति से लैस कोई विशाल अंतरिक्ष-शरीर मानते हैं।
कुछ ही समय में ‘भाअअंस’ को संकेत मिलते हैं कि यह पिंड सीधे पृथ्वी की ओर बढ़ रहा है और उसमें से ऊर्जा की लहरें निकल रही हैं जो पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र को बिगाड़ रही हैं।
वायुमंत को बुलावा:
ब्रह्म-स्टेशन के विद्वानों ने भविष्यसूचक यंत्रणा ‘कालसूत्र’ से संकेत पाया —
“स्वर्ण में अग्नि है, और अग्नि में चेतना। यह चेतना तब तक भस्म करती है, जब तक कोई उसे अग्नि से मुक्त न करे।”
वायुमंत, जो ‘नागपाश’ युद्ध से निवृत्त होकर हिमालय में तपस्या में था, को संदेश भेजा गया।
वह लौटा, अपनी अंतरिक्ष-पुष्पक यान ‘सप्तशिखर’ में बैठकर, जिसने सूर्य और चंद्रमा दोनों की ऊर्जा से गति पाई थी।
स्वर्णग्रह पर आगमन:
स्वर्णग्रह दूर से ही अत्यंत सुंदर दिखता था। परंतु जैसे-जैसे वायुमंत नजदीक गया, तापमान हजारों डिग्री तक बढ़ गया। सामान्य अंतरिक्ष यान जल चुके होते, परंतु सप्तशिखर ब्रह्म-संयंत्र से सुरक्षित था।
ग्रह पर उतरते ही सामने आया एक भव्य सिंहासन, जिस पर बैठा था — “अग्निनाथ”, एक अग्नि-पुंज, जिसकी आँखें लाल ज्वालाओं से बनी थीं। वह बोला —
“मैं रचा गया था एक युद्ध में। प्राचीन देवों और दानवों की होड़ में। मेरी आग उन्हीं की देन है, और अब मैं अंतिम युद्ध चाहता हूँ — पृथ्वी के साथ।”
वायुमंत का उत्तर:
“आग तब तक ऊर्जा है जब तक उसमें धैर्य है। जब वह सब कुछ भस्म करने लगे, तो वह केवल ज्वर बन जाती है। तू अब ज्वर बन गया है, अग्निनाथ। तुझे रोका जाना होगा।”
महायुद्ध आरंभ:
अग्निनाथ ने ‘ज्वालाभ्रम’ रच दिया — एक ऐसा क्षेत्र जिसमें वायुमंत का अस्तित्व ही पिघलने लगा। उसकी चेतना को जलाने के लिए अग्निनाथ ने ‘तेज-बीज’ फेंका, जिससे वायुमंत का कवच चटकने लगा।
तभी वायुमंत ने अपने हृदय में स्थित ‘त्रिकाल मंत्र’ का जाप आरंभ किया। उसके चारों ओर एक ऊर्जा-मंडल बना जो अग्नि को निगलने लगा। उसने अपनी तलवार ‘सौरद्वीप’ को सूर्यग्रहण की धूप से चार्ज किया और अग्निनाथ पर ‘अग्निवलय अस्त्र’ चलाया।
लेकिन अग्निनाथ अजेय था। तभी वायुमंत ने अपनी ज्ञान-शक्ति को केंद्रित किया और ‘शांतियंत्र’ का प्रयोग किया — एक वैदिक उपकरण जो अग्नि को उसकी चेतना के मूल में बाँध सकता था।
अंत और निर्णय:
अग्निनाथ पराजित होकर बोला —
“मैं नष्ट नहीं हो सकता। मैं ऊर्जा हूँ। यदि तू चाहे तो मुझे बाँध ले, परंतु मुझे चिरकाल तक पालना होगा। क्या तू तैयार है?”
वायुमंत ने उत्तर दिया —
“जो ऊर्जा निर्मूल हो जाए, वह शून्य है। पर जो नियंत्रण में हो, वही ब्रह्म है। मैं तुझे अपनी आत्मा में स्थान दूँगा — तू नष्ट नहीं होगा, परंतु केवल वही देख सकेगा तुझे जो अपने भीतर की आग से न डरता हो।”
वायुमंत ने अग्निनाथ की चेतना को एक ‘स्वर्णबिंदु’ में समाहित कर अपने त्रिनेत्र में स्थापित कर लिया।
पृथ्वी पर वापसी:
पृथ्वी पर स्वर्णग्रह अब एक स्थिर ताप-स्त्रोत बन चुका था, जो कक्षा में घूम रहा था, परंतु किसी को हानि नहीं पहुँचा रहा था। पृथ्वी की ऊर्जा स्थिर हो गई।
वायुमंत को ‘अग्निप्रहरी’ की उपाधि मिली — पर उसने केवल इतना कहा —
“मैं सिर्फ एक प्रहरी हूँ। अग्नि को अग्नि से नहीं, संयम से जीता जाता है। अग्निनाथ सो रहा है… पर उसकी नींद तभी गहरी रहेगी जब पृथ्वी अग्नि को सन्मार्ग में रखे।”
अंतिम वाक्य:
“वह लौहपुरुष नहीं, अग्निपुत्र नहीं — वह था वायुमंत — अंतरिक्ष का संतुलन रक्षक।”