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स्वाभिमान की ज्वाला: राजगढ़ के रणबांकुरों की अमर गाथा

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स्वाभिमान की ज्वाला: राजगढ़ के रणबांकुरों की अमर गाथा

संक्षिप्त विवरण:
यह कहानी प्राचीन भारत के राजगढ़ राज्य की है, जहाँ राजा वीरव्रत और उनकी राजपूत सेना ने अपने आत्मसम्मान और स्वाभिमान की रक्षा के लिए दुश्मन सम्राट बलवंत खलिक के विशाल साम्राज्य को ललकारा। यह युद्ध केवल तलवारों और तीरों का नहीं था, बल्कि संकल्प, त्याग और आत्मबलिदान की ऐसी अमर गाथा थी, जिसने राजगढ़ को इतिहास में अमर कर दिया।


कहानी का आरंभ:

सूर्य अस्त हो रहा था, और राजगढ़ का आकाश केसरिया रंग में रंगा था। किले की प्राचीरों पर खड़े सैनिकों की आंखों में गर्व और चेहरे पर कर्तव्य का प्रकाश था। राजगढ़, एक छोटा लेकिन स्वाभिमानी राज्य, जहाँ के लोग अपनी मातृभूमि को माँ के समान पूजते थे।

राजा वीरव्रत, राजगढ़ के शासक, अपने न्यायप्रिय स्वभाव, युद्ध कौशल और अपराजेय नेतृत्व के लिए प्रसिद्ध थे। उनके साथ उनका परम विश्वासपात्र सेनापति भैरवसिंह और हजारों रणबांकुरे सदा तैयार रहते थे मातृभूमि के लिए सर्वस्व अर्पण करने को।

एक दिन उत्तर दिशा से सन्देशवाहक आया — सम्राट बलवंत खलिक का राजदूत। उसकी वाणी में अहंकार और शब्दों में अपमान था। उसने सम्राट की ओर से यह आदेश सुनाया कि राजगढ़ को बलवंत खलिक की अधीनता स्वीकार करनी होगी। बदले में उन्हें ‘सुरक्षा’ दी जाएगी और ‘शांति’ का वचन।

राजा वीरव्रत ने शांति से उसकी बात सुनी और उत्तर दिया,
“राजगढ़ के सैनिक शांति नहीं, स्वाभिमान के लिए जीते हैं। और जहाँ स्वाभिमान की रक्षा तलवार से होती हो, वहाँ झुका हुआ मस्तक अपवित्र माना जाता है। लौट जाओ, और जाकर अपने सम्राट को कहो — राजगढ़ झुकेगा नहीं, टूटेगा पर बचेगा नहीं।”

राजदूत क्रोधित होकर चला गया। अगले ही दिन युद्ध की घोषणा हो गई।


रणभूमि की तैयारी:

राजगढ़ के सभी दरवाजे बंद कर दिए गए। चारों दिशाओं से सैनिकों को एकत्र किया गया। घोड़े, हाथी, धनुष, तलवारें — सब सज चुके थे। किले की स्त्रियाँ अपने पतियों को तिलक कर विदा कर रही थीं, आँखें नम थीं पर गर्व से भरी हुईं।

सेनापति भैरवसिंह ने युद्धनीति तय की — रक्षात्मक युद्ध, परंतु हर चक्रव्यूह में छिपा प्रतिआक्रमण।

महल में रानी यशोधरा ने रजवाड़ों की स्त्रियों को एकत्र कर कहा —
“यदि हम हारें, तो यह सुनिश्चित करना कि कोई शत्रु हमें अपवित्र न कर सके। वीरांगनाएँ केवल तलवार से नहीं, आत्मबल से भी रण जीतती हैं।”

राजगढ़ का प्रत्येक नागरिक अब योद्धा था।


बलवंत खलिक का आक्रमण:

तीसरे दिन, सम्राट बलवंत खलिक ने अपनी विशाल सेना के साथ राजगढ़ पर आक्रमण किया। उसके पास ५०,००० घुड़सवार, १०,००० हाथी, तोपें और युद्धचक्र थे। उसके सेनापति मिर्ज़ा अलीबख़्त और रुद्रसेन, खून के प्यासे, जीत के भूखे थे।

राजगढ़ की सेना केवल ८,००० राजपूत योद्धाओं की थी — परंतु उनके पास था आत्मबल, स्वाभिमान और मर मिटने का संकल्प।

पहला दिन — दुश्मन की तोपों ने किले की दीवारें हिला दीं। परंतु भीतर से एक भी चीख नहीं आई।

दूसरा दिन — मिर्ज़ा अलीबख़्त ने पूर्वी द्वार को तोड़ा। पर भैरवसिंह ने रण में उसका घमंड काट दिया, तलवार के एक ही वार से उसका मस्तक धड़ से अलग कर दिया।

तीसरा दिन — राजगढ़ की आपूर्ति समाप्त होने लगी। जल के स्रोत सूख रहे थे, भोजन सीमित था। पर वीरव्रत ने अपने सैनिकों से कहा —
“हम क्षुधा से मर सकते हैं, पर अपमान से नहीं।”


अंतिम युद्ध:

पाँचवे दिन की रात्रि। किले की दीवारों पर आखिरी दीपक जल रहा था। राजा वीरव्रत ने घोषणा की —
“कल प्रातः हम किले के द्वार खोलेंगे। हम रणभूमि में उतरेंगे। यह अंतिम युद्ध होगा। या तो हम जियेंगे, या इतिहास हमें जियेगा।”

सुबह की पहली किरण के साथ द्वार खुले। राजपूतों के केसरिया वस्त्र, रथों की गर्जना, युद्धघोष और सिंहनाद ने वातावरण को कंपा दिया।

राजा स्वयं अग्रिम पंक्ति में थे। भैरवसिंह, रक्त से सने परंतु अदम्य, रानी यशोधरा ने अपने स्त्री दल के साथ अंतिम रक्षा का संकल्प लिया।

युद्ध भयानक था — रक्त, आर्तनाद, और तलवारों की टंकार। परंतु दोपहर होते-होते, राजगढ़ की भूमि वीरों के रक्त से लाल हो चुकी थी।

राजा वीरव्रत ने बलवंत खलिक के साथ द्वंद्व किया। वह घायल हुए, पर अंतिम वार उनके हाथ से निकला। बलवंत खलिक का सीना चीरते हुए तलवार ने इतिहास को बदल दिया।

राजा भी गिर पड़े — अंतिम श्वास में बोले,
“राजगढ़ झुका नहीं… अमर हो गया।”


कहानी का अंत:

राजगढ़ पूरी तरह तबाह हो गया, पर उसकी आत्मा जीवित रही। रानी यशोधरा और बची हुई स्त्रियों ने जौहर कर आत्मसम्मान की रक्षा की। बलवंत खलिक की सेना ने हार मानी और वापस लौट गई।

इतिहास ने इस युद्ध को ‘स्वाभिमान की ज्वाला’ कहा — क्योंकि यह वह युद्ध था जो आत्मबलिदान, सम्मान और अपराजेय साहस की मिसाल बन गया।

आज भी राजगढ़ के खंडहरों में रात को धीमे स्वर में रणघोष सुनाई देते हैं, जैसे वीरव्रत और उनके सैनिक अब भी कह रहे हों —
“झुकेंगे नहीं… मिट जाएंगे… पर आत्मसम्मान को न बेंचेंगे।”

समाप्त।

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