13वीं सीढ़ी की चीख़
एक पुराने बहुमंज़िला मकान में किराए पर रहने आई एक लेखिका को हर रात एक अजीब सी चीख़ सुनाई देती है — लेकिन वह चीख़ केवल तभी आती है जब कोई 13वीं सीढ़ी पर पाँव रखता है। पुलिस, पड़ोसी, और स्थानीय लोग इसे अंधविश्वास मानते हैं, लेकिन लेखिका जब खुद इसकी तह में जाती है, तो उसे एक ऐसा सच पता चलता है जो न केवल डरावना है, बल्कि खून जमा देने वाला भी।
कहानी
दक्षिण दिल्ली के एक शांत लेकिन पुराने मोहल्ले में स्थित था — ‘शांति निवास’। ऊँची दीवारों वाला एक पुराना बंगला, जिसमें अब पाँच फ्लैट बने हुए थे। इमारत पर समय की दरारें साफ़ दिखती थीं, लेकिन किराया सस्ता होने की वजह से वहाँ अब भी कुछ लोग रहते थे।
आद्या रॉय, एक युवा लेखिका जो क्राइम और रहस्य पर उपन्यास लिखती थी, इसी मकान के सबसे ऊपरी मंज़िल वाले फ्लैट में रहने आई। उसका मकसद था — एकांत में बैठकर नया उपन्यास लिखना।
पहली ही रात, जब वह रसोई से पानी लेने के लिए उठी, तभी उसे एक अजीब सी चीख़ सुनाई दी — बिलकुल पास से। वह सहम गई। खिड़की खोली, बाहर झाँका — सब शांत था।
दूसरे दिन मकान मालिक से पूछा, तो उन्होंने कहा —
“यहाँ की दीवारें पुरानी हैं बेटा, हवा चलती है तो आवाज़ें आती हैं। डरने की कोई बात नहीं है।”
लेकिन आद्या लेखिका थी — वह शब्दों से डरती नहीं थी, वह शब्दों में छुपे रहस्य को पहचानती थी।
अगली रात जब वह सीढ़ियों से नीचे उतर रही थी, तो जैसे ही उसका पैर 13वीं सीढ़ी पर पड़ा, एक तेज़, कर्कश, और भीतर तक कंपा देने वाली चीख़ सुनाई दी — जैसे किसी स्त्री की आत्मा छटपटा रही हो।
वह काँपते हुए ऊपर भागी।
अब वह रोज़ गिनकर सीढ़ियाँ चढ़ती-उतरती। और हर बार — 13वीं सीढ़ी पर वही चीख़।
उसने मकान के पुराने रजिस्ट्रेशन दस्तावेज़ खोज निकाले। जानकर हैरानी हुई कि शांति निवास पहले एक बालिका आश्रम था। 1984 में वहाँ एक भीषण आग लगी थी, जिसमें एक 16 वर्षीय लड़की नमिता शर्मा की मौत हो गई थी। फाइल में दर्ज था कि शव कभी नहीं मिला।
आद्या को यक़ीन हो गया कि उस चीख़ का संबंध नमिता से है।
उसने मकान के बेसमेंट की छानबीन की, जहाँ अब तक कोई नहीं गया था। वहाँ उसे जली हुई लकड़ियाँ, पुराने बक्से और एक टेढ़ा-मेढ़ा आईना मिला। आईने पर एक लड़की की छाया झलकती थी। अचानक एक आवाज़ गूंजी —
“मैं वहाँ हूँ… जहाँ तुम रोज़ चलती हो… मैं वहीं मरी थी… मेरी हड्डियाँ उसी सीढ़ी में दबी हैं…”
आद्या ने अगली सुबह नगर निगम से मदद लेकर 13वीं सीढ़ी को हटवाया।
जैसे ही सीमेंट उखाड़ा गया, वहाँ से एक कंकाल मिला — एक छोटी लड़की का। उसके गले में एक चांदी की छोटी सी चेन लटकी थी, जिस पर नाम खुदा था — “नमिता”।
मकान में अब चीख़ें बंद हो गईं।
आद्या ने नमिता के अवशेषों का अंतिम संस्कार करवाया। और कुछ ही हफ्तों में मकान की हवा बदल गई।
उसने अपने उपन्यास का नाम रखा — “13वीं सीढ़ी”, और उसमें लिखा —
“कभी-कभी आत्माएँ भटकती नहीं, उन्हें जानबूझकर भुला दिया जाता है। लेकिन जब उन्हें सुना जाता है, समझा जाता है, और मुक्त किया जाता है — तब वे सचमुच चली जाती हैं।”
अंतिम पंक्तियाँ
अब जब भी कोई शांति निवास में आता है, तो वह निडर होकर 13वीं सीढ़ी पर पाँव रखता है। चीख़ नहीं आती, लेकिन हर किसी को लगता है — जैसे किसी ने उसके कंधे पर हल्का सा हाथ रखा हो।
शायद नमिता अब आभार व्यक्त कर रही है — आज़ादी के लिए नहीं, बल्कि सुने जाने के लिए।