कोठी नंबर सत्तावन
कोठी नंबर सत्तावन – एक ऐसा आधुनिक रहस्य, जो एक पत्रकार की ज़मीनी खोज से शुरू होकर, समय की कई परतों को चीरता है। जब तकनीक, इतिहास और आत्मा एक जगह टकराते हैं, तब केवल प्रश्न नहीं उठते – कुछ दरवाज़े भी खुलते हैं, जिन्हें कभी खोला नहीं जाना चाहिए था।
पहला दृश्य : ग़ायब होती कोठियाँ
दिल्ली के बाहरी इलाके में स्थित था प्रभवपुर – एक नया विकसित हो रहा आधुनिक रिहायशी क्षेत्र। चमचमाती सड़कों, स्वचालित फाटक, निगरानी कैमरे, और महंगे फ्लैट्स के बीच एक कोना था जो हमेशा अधूरा रहा – कोठी नंबर ५७।
यह कोठी नई बसी कॉलोनी के बीचोंबीच थी, परंतु किसी को नहीं पता था कि इसे किसने बनवाया, न ही यह कभी रजिस्ट्री में दर्ज थी। उसकी दीवारें पुरानी थीं, जबकि कॉलोनी बस पाँच साल पुरानी थी।
लोग कहते थे कि जो भी इस कोठी के भीतर रहने गया, वह अधिकतम सात दिनों में वहाँ से भाग आया – पागलपन, बड़बड़ाहट, और आँखों में किसी अनदेखी चीज़ का डर लेकर।
पत्रकार नेहा त्रिपाठी को यह सब अफ़वाहें लगीं – और वह ठान बैठी कि यह उसका अगला विशेष समाचार होगा।
दूसरी परत : दस्तावेज़ जो मौजूद नहीं थे
नेहा ने कॉलोनी के विकास प्राधिकरण से सम्पर्क किया।
“कोठी नंबर सत्तावन?” अधिकारी हँसा, “हमारे रिकॉर्ड में ऐसा कोई नंबर दर्ज ही नहीं। कॉलोनी १ से ५६ तक ही है।”
“पर वहाँ एक इमारत है,” नेहा ने कहा।
“अगर है, तो वह वहाँ नहीं होनी चाहिए।”
उसने तहसील कार्यालय के पुराने दस्तावेज़ खंगाले – सन् १९८४ में एक राजकीय कर्मचारी की आत्महत्या के मामले का ज़िक्र था – मृत्यु का स्थान: कोठी नंबर ५७, प्रभवपुर भूमि योजना, जबकि उस योजना का निर्माण २०१७ में हुआ था।
नेहा के हाथ काँपने लगे।
तीसरी परत : कोठी के भीतर
नेहा ने कोठी में घुसने का निर्णय लिया।
काँपते मन से, वह एक शुक्रवार की रात प्रवेश कर गई।
भीतर कोई आधुनिक सुविधा नहीं थी – केवल एक पुरानी दीवार पर जड़े हुए घंटे, जिनमें से हर एक बजता रहा बिना किसी ध्वनि के। एक फ़र्श पर पड़ी थी एक जली हुई डायरी। उसमें लिखा था:
“हर शुक्रवार को समय यहाँ ठहर जाता है। हर आने वाला केवल वही देखता है, जो वह स्वयं से छिपा रहा हो। यह कोठी आईना नहीं – एक दर्पण है आत्मा का।”
अचानक नेहा ने अपनी तस्वीर दीवार पर देखी – पर वह तस्वीर नहीं हिली, बल्कि वह मुस्कराई।
चौथी परत : विज्ञान और अतीत का मिलन
नेहा बाहर निकली, तो घड़ी सुबह के चार बजे दिखा रही थी – पर कॉलोनी के बाहर हर घड़ी शुक्रवार रात ग्यारह पर ही रुकी हुई थी। उसके फोन में कोई नेटवर्क नहीं था, और कैमरे की सारी रिकॉर्डिंग काली स्क्रीन में बदल चुकी थी।
वह पहुँची विज्ञान संस्थान, जहाँ भौतिकी वैज्ञानिक डॉ. विनायक कश्यप ने एक अद्भुत बात कही –
“सम्भव है कि वह कोठी एक स्थानीय समय-मोहल में फँसी हो। कभी-कभी ऐसे बिंदु उत्पन्न होते हैं, जहाँ समय रुकता नहीं, बल्कि अपने दोहराव में फँस जाता है। और वहाँ घुसने वाला व्यक्ति समय की छाया के साथ एक हो जाता है।”
नेहा को अब समझ आने लगा था – वह कोठी अतीत का अंश नहीं, बल्कि हर युग की असंभवताओं का संगम है।
पाँचवी परत : आत्मा का चक्र
रविवार को नेहा ने दोबारा कोठी में प्रवेश किया।
इस बार उसे वहाँ एक वृद्ध व्यक्ति मिले, जो लगातार फर्श पर आकृतियाँ बना रहा था।
“मैं श्रीधर हूँ,” उसने कहा। “मैं १९८४ से यहाँ हूँ। तुम बाहर की हो, पर अब तुम भी भीतर हो।”
“क्या कोई बाहर जा सकता है?”
“हाँ,” उसने उत्तर दिया, “पर जो एक बार भीतर का सत्य देख ले, वह बाहर के झूठ को सह नहीं सकता।”
नेहा ने उससे हाथ जोड़कर पूछा, “फिर मुझे क्या करना होगा?”
“तुम्हें अपना सबसे बड़ा झूठ कबूल करना होगा।”
नेहा की आँखें भर आईं – वह वर्षों से एक सच को छिपा रही थी: उसकी छोटी बहन की मृत्यु एक दुर्घटना नहीं, बल्कि उसकी ही लापरवाही का परिणाम थी।
जैसे ही नेहा ने ज़ोर से कहा – “मैं दोषी हूँ!”
कोठी की छत से एक तेज़ रौशनी निकली, और सारे कमरे धुआँ बनकर उड़ने लगे।
अंतिम परत : जो दिखाई नहीं देता
जब नेहा दोबारा बाहर निकली, तो कॉलोनी के सभी लोग उसे ऐसे देख रहे थे जैसे वह कोई अजनबी हो। उसके घर में कोई नहीं था, उसके फोन में कोई संपर्क नहीं, उसके न्यूज़ चैनल पर उसका नाम कभी दर्ज ही नहीं हुआ था।
वह अब मौजूद थी, पर कहीं दर्ज नहीं।
उसे एक बात समझ आई – कोठी नंबर ५७ एक जगह नहीं, एक चेतन अवस्था थी। जो वहाँ जाता है, वह अपने भीतर की सबसे गहरी परछाइयों से टकराता है, और अगर वो स्वीकार करे – तो बाहर आ सकता है, पर अब वह पहले जैसा नहीं रह सकता।
अब वह कोठी फिर से दिखती है –
पर हर शुक्रवार को किसी नई आत्मा को खींचने के लिए।
और नेहा?
अब वह वहीं रहती है।
कोठी नंबर सत्तावन की निगरानी में।
समाप्त