छठवीं मंज़िल का आख़िरी कमरा
संक्षिप्त भूमिका
दिल्ली के एक प्रसिद्ध निजी अस्पताल की छठवीं मंज़िल के अंत में एक विशेष कमरा है — कमरा संख्या 628। यह कमरा आईसीयू के पास स्थित है, जहाँ केवल गंभीर मानसिक रोगियों को रखा जाता है। पिछले तीन वर्षों में, इस कमरे में भर्ती हुए सात मरीज़ों ने या तो आत्महत्या कर ली है, या रहस्यमयी परिस्थितियों में कोमा में चले गए हैं।
जब मनोचिकित्सक डॉ. आशीष गुप्ता को वहां कार्यभार सौंपा जाता है, तो उन्हें यह संयोग नहीं बल्कि कुछ और लगने लगता है। धीरे-धीरे उन्हें पता चलता है कि इस कमरे से जुड़े रहस्य केवल मरीज़ों तक सीमित नहीं, बल्कि इस पूरे अस्पताल की व्यवस्था, डेटा, और एक पुराने अप्रकाशित केस की फाइल तक फैले हुए हैं।
पहला दृश्य — एक नई शुरुआत, पुरानी दीवारों में
डॉ. आशीष गुप्ता, दिल्ली विश्वविद्यालय से मनोचिकित्सा में स्वर्ण पदक प्राप्त युवा डॉक्टर, को सारथी हेल्थकेयर इंस्टीट्यूट में वरिष्ठ परामर्शदाता के रूप में नियुक्त किया गया था।
यह अस्पताल राजधानी के सबसे बड़े निजी मानसिक स्वास्थ्य संस्थानों में गिना जाता था। इसकी आधुनिक मशीनें, अनुशासित स्टाफ और उच्च सुरक्षा वाले वार्ड पूरे शहर में चर्चा में रहते थे।
लेकिन अस्पताल के भीतर एक ऐसा हिस्सा था, जिसे लेकर न तो कोई खुलकर बात करता था, और न ही वहाँ जाना पसंद करता था — छठवीं मंज़िल का ‘विशेष पर्यवेक्षण कक्ष’।
इस मंज़िल के अंतिम सिरे पर बना कमरा 628, सालों से रहस्यों से घिरा हुआ था।
स्टाफ में यह बात फैली थी कि “जो भी वहाँ गया, ठीक नहीं लौटा।”
कभी कोई मरीज़ बिना किसी कारण के आत्महत्या कर लेता,
कभी कोई लगातार शांत और स्थिर रहने के बाद अचानक पागलपन की हद तक हिंसक हो जाता,
तो कभी कोई अज्ञात रोग में कोमा में चला जाता।
पर कोई ठोस रिकॉर्ड, कारण या मेडिकल तथ्य इस बात की पुष्टि नहीं करते थे।
ये सब सिर्फ़ “कहानियाँ” थीं —
जब तक कि डॉ. आशीष ने स्वयं उस कमरे की ज़िम्मेदारी नहीं ली।
दूसरा दृश्य — वो जो दिखता नहीं, पर मौजूद होता है
आशीष को पहला झटका तब लगा, जब उन्होंने पिछले सात केस फाइलें देखीं।
हर एक में मरीज़ ने 10 से 15 दिन सामान्य रहने के बाद अचानक अपना व्यवहार बदल लिया था।
अंतिम रिकॉर्डिंग्स में एक चीज़ सामान्य रूप से दिखती —
हर मरीज़ दीवार की ओर देखता रहता था,
और एक ही वाक्य दोहराता:
“वो देख रहा है… मगर कहता कुछ नहीं…”
इन वाक्यों का कोई मतलब नहीं था।
आशीष ने अपने वरिष्ठों से पूछा —
तो जवाब मिला:
“शायद मानसिक भ्रम, मतिभ्रम… गंभीर केस हैं, मत सोचो ज़्यादा।”
लेकिन डॉक्टर सोचने के लिए ही तो होता है।
आशीष ने कमरा 628 में कैमरे लगवाए, हर मिनट का वीडियो सुरक्षित रखने की कोशिश की।
स्टाफ को निर्देश दिया कि मरीज़ों के साथ हर बातचीत को रिकॉर्ड करें।
उसी समय भर्ती हुआ एक नया केस —
दीपांकर मेहता, उम्र 41, एक मल्टीनेशनल कंपनी का वरिष्ठ अधिकारी,
जिसे अचानक गाड़ी चलाते समय अजीब व्यवहार के चलते पुलिस ने अस्पताल पहुँचाया था।
तीसरा दृश्य — आवाज़ें, जो दस्तावेज़ों में दर्ज नहीं होतीं
दीपांकर पहले कुछ दिनों तक शांत था।
कभी-कभी बड़बड़ाता था, कभी-कभी आंखें फाड़कर किसी को घूरता था,
लेकिन दवाओं के असर से स्थिति काबू में लगने लगी।
एक दिन डॉ. आशीष ने अपने सहायक से पूछा —
“क्या दीपांकर ने कोई डायरी रखी है?”
सहायक ने बताया कि उसके बैग से एक छोटा नोटपैड मिला था,
जिसमें कुछ अधूरे वाक्य और एक ही पंक्ति बार-बार लिखी थी:
“रवि ने मुझे माफ़ नहीं किया।”
आशीष चौंका।
कौन रवि?
उन्होंने पुलिस रिकॉर्ड खंगाले —
और पता चला कि दो साल पहले, दीपांकर की गाड़ी से एक एक्सीडेंट हुआ था,
जिसमें एक 14 वर्षीय लड़का मारा गया था —
रवि कपूर।
मामला जुर्माने और कोर्ट के आदेश से निपटा लिया गया था।
लेकिन इस घटना का सीधा संबंध उसकी मानसिक स्थिति से क्या था?
आख़िर दीपांकर उस समय भी मानसिक रूप से स्थिर माना गया था।
चौथा दृश्य — कनेक्शन जो डाटाबेस में नहीं मिलते
डॉ. आशीष ने अब तक के सभी सात मरीज़ों के बैकग्राउंड को विस्तार से खंगालना शुरू किया।
वह चौंक गए जब उन्होंने देखा कि हर एक मरीज़ किसी न किसी मौत, गलती, या अन्याय से जुड़ा था —
या तो उसने अतीत में कोई अपराध किया था,
या किसी को धोखा दिया था,
या किसी की आत्महत्या का अप्रत्यक्ष कारण बना था।
कमरा 628 में आने के बाद,
हर मरीज़ की हालत बिगड़ती थी —
जैसे कोई पुरानी सच्चाई उनसे हिसाब माँग रही हो।
डॉ. आशीष ने एक स्टाफ नर्स से पूछा —
“क्या आपको कभी ऐसा महसूस हुआ है कि कमरे में कोई और भी होता है?”
नर्स ने जवाब दिया —
“साहब… रात को कई बार ऐसा लगता है जैसे कोई मरीज़ नहीं, खुद कमरा हमें देख रहा है।”
अंतिम दृश्य — कमरा या आईना?
दीपांकर की हालत अचानक बहुत बिगड़ गई।
उसने अपने कमरे में शीशे को तोड़ दिया और बार-बार चिल्लाया:
“मैंने नहीं मारा उसे! मुझे क्यों दिखते हैं वो सब!”
आशीष ने सीसीटीवी रिकॉर्डिंग देखी।
एक रात दीपांकर बिस्तर से उठा और सीधे दीवार की ओर बढ़ा।
उसने दीवार पर उँगलियों से कुछ लिखा —
जिसे अगली सुबह पोंछ दिया गया था।
रिकॉर्डिंग को धीमा करके देखने पर पता चला —
वह लिख रहा था:
“कमरा सब जानता है।”
यह सब मानसिक रोग हो सकता था।
या शायद आत्मग्लानि का बोझ।
लेकिन डॉ. आशीष ने उसी दिन अस्पताल प्रबंधन से सिफ़ारिश की कि कमरा 628 को बंद कर दिया जाए।
उसके बजाय एक नया मरीज़ अब 627 या 629 में रखा जाता है।
तीन महीने बीत चुके हैं —
कोई नया मामला नहीं आया।
पर डॉ. आशीष अब तक एक बात पर सोचते हैं:
क्या कमरा 628 बस ईंट-पत्थर से बना एक कक्ष था,
या वो इंसानी ज़मीर की ऐसी प्रयोगशाला थी,
जहाँ ग़लतियाँ छिपती नहीं, सिर्फ़ उभरती हैं?
समाप्त