नीलिमा और नीला बैग
संक्षिप्त विवरण:
यह कहानी है 15 वर्षीय नीलिमा त्रिपाठी की, जो बनारस की संकरी गलियों में अपने नीले बैग और हजारों विचारों के साथ चलती है। नीलिमा का सपना कोई बड़ा वैज्ञानिक बनने का नहीं है, न ही कोई ताजमहल बनाने का — उसका सपना है अपने जैसे सैकड़ों बच्चों के लिए एक ऐसी लाइब्रेरी बनाना, जहाँ वे बिना डर, बिना शोर, बिना रोक के सपने पढ़ सकें।
‘नीलिमा और नीला बैग’ एक सकारात्मक, प्रेरणादायक और आनंद से भरी युवा कथा है, जिसमें हँसी है, दोस्ती है, माता-पिता से संघर्ष है, शिक्षकों की डाँट है, लेकिन सबसे बढ़कर — उस उम्र की आवाज़ है जो कहती है, “हम कुछ भी कर सकते हैं — बस हमें आज़ादी और एक मौका चाहिए।”
पहला भाग – नीले बैग वाली लड़की
सुबह के 7 बज रहे थे। बनारस की एक पतली गली में हल्के गुलाबी कुर्ते में एक लड़की तेज़ी से चल रही थी। उसकी पीठ पर एक नीला बैग लटका था — थोड़ा फटा हुआ, थोड़ा टेढ़ा, लेकिन अंदर भरा था — किताबों, कलमों और नोट्स से।
वह नीलिमा त्रिपाठी थी — क्लास 10 की छात्रा, स्कूल की सबसे जिज्ञासु और सबसे अलग सोचने वाली लड़की।
जब बाक़ी छात्र परीक्षा की तैयारी में “रटने” में लगे थे, नीलिमा “समझने” में व्यस्त रहती थी।
वह स्कूल के लाइब्रेरी को अपनी दुनिया मानती थी, लेकिन वहाँ की किताबें पुरानी और गिनी-चुनी थीं।
वह सोचती — “एक दिन मैं ऐसी लाइब्रेरी बनाऊँगी जहाँ हर बच्चा बिना फीस, बिना डर, किताबों से दोस्ती कर सके।”
दूसरा भाग – जब किताबें कम पड़ने लगीं
स्कूल की लाइब्रेरी में विज्ञान की किताब केवल दो थीं — और दोनों फटी हुई, आधे पन्ने गायब।
एक दिन नीलिमा ने जब लाइब्रेरी में अपनी सहेली रचना को “रीडिंग रूम” में बुलाया, तो वहाँ एक कुर्सी भी टूटी हुई मिली।
“ये तो जगह नहीं, जेल जैसा लगता है,” रचना ने कहा।
नीलिमा बोली, “अगर मैं लाइब्रेरी बनाऊँगी ना, तो उसमें हर दीवार पर रंग होगा, हर किताब पर मुस्कान होगी।”
“बनाएगी कैसे? पैसे तो पेड़ों पर नहीं लगते,” रचना हँसी।
नीलिमा ने गम्भीर होकर कहा — “सपने भी पेड़ों पर नहीं लगते, लेकिन फिर भी उगते हैं।”
तीसरा भाग – जब माँ बोलीं, ‘ये सब छोड़ो’
एक दिन घर पर नीलिमा कुछ पोस्टर बना रही थी — “मेरी लाइब्रेरी, मेरी उड़ान” — नामक एक पहल शुरू करने की तैयारी कर रही थी।
माँ ने देखा, तो पूछा —
“अब ये क्या नया झंझट है?”
नीलिमा बोली —
“मैं स्कूल के बच्चों से पुरानी किताबें इकट्ठा करूँगी, और फिर एक कोना तय करके लाइब्रेरी शुरू करूँगी।”
माँ ने चौंकते हुए कहा —
“और पढ़ाई का क्या? बोर्ड पास नहीं करोगी तो कौन लाइब्रेरी खोलेगा तुम्हारे लिए?”
“मैं पढ़ भी रही हूँ माँ, लेकिन सपनों को पढ़ाई से अलग क्यों देखा जाता है?”
पिता चुपचाप आकर बोले —
“कुछ भी करो, लेकिन पढ़ाई मत छोड़ना। बाकी जो करना हो, कर लो। हिम्मत चाहिए तो मैं हूँ तुम्हारे साथ।”
नीलिमा की आँखों में चमक आ गई।
चौथा भाग – पहला दान, पहला संघर्ष
नीलिमा ने अपने स्कूल के बच्चों से निवेदन किया कि जो किताबें वह सालभर बाद फेंक देते हैं, उन्हें दान करें।
कुछ बच्चे हँसे, कुछ ने मज़ाक उड़ाया — “मैडम अब कबाड़ी का धंधा करेंगी।”
लेकिन फिर धीरे-धीरे एक, दो, पाँच, दस किताबें आने लगीं।
उसने स्कूल के पीछे के खाली कमरे को साफ किया — झाड़ू लगाया, दीवारों पर पोस्टर चिपकाए, रैक बनवाईं।
नाम रखा —
“नीली लाइब्रेरी – हर सोच को पंख”
स्कूल के कुछ अध्यापक बहुत प्रभावित हुए — हिंदी की शुक्ला मैडम ने कहा —
“आज पहली बार किसी ने सच में कुछ ‘सपने जैसा’ किया है।”
पाँचवां भाग – अखबारों में नाम, मोहल्ले में सवाल
लाइब्रेरी की खबर एक स्थानीय अख़बार में छपी।
शीर्षक था — “15 वर्षीय छात्रा ने खोली अपनी लाइब्रेरी”
पढ़कर मोहल्ले के लोग चर्चा करने लगे —
“बहुत तेज़ हो गई है ये लड़की,”
“क्या ज़रूरत थी सबकी किताबें उठाने की?”
“बेटी है, चुपचाप पढ़ती तो अच्छा लगता।”
पर नीलिमा रुकने वाली नहीं थी। उसने एक बक्सा बनाया — “खुद चुनो, खुद पढ़ो” — जिसमें कोई भी बच्चा आकर बिना पूछे किताब ले जा सकता था।
धीरे-धीरे मोहल्ले के छोटे बच्चे आने लगे — कुछ चित्रों की किताब माँगते, कुछ कविता।
नीलिमा हर शाम बैठकर बच्चों को पढ़ाती। पढ़ाई भी चलती रही, सपना भी।
छठा भाग – बोर्ड परीक्षा और आत्मबल
परीक्षा पास आ रही थी। माँ परेशान थीं कि नीलिमा दिन में कई घंटे बच्चों को पढ़ाने में लगाती है।
“अब सब बंद करो। बोर्ड परीक्षा मज़ाक नहीं होती।”
नीलिमा बोली, “माँ, मैं रातभर पढ़ूँगी। दिन में लाइब्रेरी। मैं दोनों संभाल लूँगी।”
वह रोज़ 4 बजे सुबह उठती, दो घंटे पढ़ती, फिर स्कूल जाती, फिर शाम 5 से 8 तक लाइब्रेरी में बच्चों को पढ़ाती।
परीक्षा दी, और जब परिणाम आया —
नीलिमा ने 93 प्रतिशत अंक पाए।
पूरा स्कूल तालियों से गूंज उठा। और सबसे पहले माँ ने कहा —
“अब मुझे भी एक किताब देना। मैं भी पढ़ूँगी इस लाइब्रेरी से।”
अंतिम भाग – आज़ादी की खुली खिड़कियाँ
अब नीलिमा की “नीली लाइब्रेरी” को स्थानीय प्रशासन ने “युवा पुस्तकालय योजना” के तहत सरकारी मान्यता दी है।
हर महीने शहरभर से छात्र वहाँ आते हैं — पढ़ने, समझने और सपने देखने।
नीलिमा अब 17 साल की है और “सार्वजनिक शिक्षा और साक्षरता” पर TEDx भाषण देने जा चुकी है।
उसका नीला बैग अब भी है — पुराने जैसा ही, लेकिन उसमें अब किताबों के साथ एक दुनिया की चाभी है।
जब कोई बच्चा पूछता है — “दीदी, क्या हम भी ऐसा कुछ कर सकते हैं?”
वह हँसती है और कहती है —
“क्यों नहीं? किताबें पढ़ो, सपने बुनो, फिर अपनी ही लाइब्रेरी बना लो — जहाँ सोच हो, शोर नहीं।”
समाप्त
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