छत की दुनिया
संक्षिप्त विवरण:
यह कहानी है कौस्तुभ चौबे की — एक 13 वर्षीय शर्मीले, कल्पनाशील और थोड़े अजीब-से दिखने वाले लड़के की, जो मध्यप्रदेश के जबलपुर शहर में रहता है। पढ़ाई में अच्छा, पर दोस्तों से दूर। गर्मियों की छुट्टियाँ शुरू होती हैं और जब सब बच्चे घूमने चले जाते हैं, कौस्तुभ की दुनिया सिमट जाती है — सिर्फ किताबें और उसकी घर की तीसरी मंज़िल पर बनी पुरानी छत।
लेकिन वही छत, जो कभी अकेलेपन की जगह थी, एक दिन जादुई अड्डा बन जाती है — दोस्ती, खेल, हँसी और आत्म-खोज की।
‘छत की दुनिया’ एक मधुर, गहराई से भरी और बेहद आत्मीय किशोर कथा है जो यह दिखाती है कि ज़िंदगी की सबसे खूबसूरत कहानियाँ हमारी छतों से ही शुरू होती हैं।
पहला भाग – वह जो अकेला रहता था
कौस्तुभ चौबे का घर जबलपुर के विजय नगर इलाके में था — तीन मंज़िल का पुराना मकान, जहाँ नीचे दादा-दादी रहते थे, पहले माले पर मम्मी-पापा और सबसे ऊपर था कौस्तुभ का कमरा।
कौस्तुभ बचपन से ही थोड़ा अलग था — किताबें पढ़ना, तारों को देखना, रेडियो से पुराने गाने सुनना — ये सब उसका संसार था।
स्कूल में उसके ज़्यादा दोस्त नहीं थे।
टीचर कहते — “शांत लड़का है, पढ़ाई में तेज़ है।”
क्लासमेट्स कहते — “बोरिंग है।”
वह इन बातों से दुखी नहीं होता, पर कभी-कभी खिड़की से बाहर देखते हुए सोचता —
“क्या मैं अकेला ही ठीक हूँ?”
दूसरा भाग – छुट्टियाँ और छत की धूल
गर्मी की छुट्टियाँ शुरू हो चुकी थीं। मोहल्ले के बच्चे नानी-घर, दादी-घर जा चुके थे। कॉलोनी का मैदान खाली हो गया था।
कौस्तुभ के माता-पिता सरकारी नौकरी में थे — दिनभर ऑफिस, शाम को थकान।
दादी की तबीयत नाज़ुक, और दादाजी पूरे दिन रेडियो से चिपके रहते।
उसका कमरा गर्म होने लगा था। एक दिन ऊबकर वह छत पर चला गया। छत पर पुराना लोहे का झूला पड़ा था, एक टूटी बाल्टी और माँ की सूखी तुलसी।
वह झूले पर बैठा और पुराने रेडियो पर विविध भारती चालू कर दी।
साथ में थी उसकी डायरी — जिसका पहला पन्ना लिखा गया था —
“छत पर दुनिया अलग लगती है।”
तीसरा भाग – छत पर पहली चिट्ठी
तीसरे दिन छत पर एक कागज़ उड़ता हुआ आया — पीला-सा, मुड़ा-तुड़ा।
उस पर लिखा था —
“तुम भी अकेले हो? क्या मैं आ सकती हूँ?”
कौस्तुभ चौंका। उसने चारों ओर देखा — कोई नहीं।
अगले दिन छत पर एक लड़की खड़ी थी — उसकी उम्र भी वही रही होगी, बालों में चोटियाँ और हाथ में झोला।
“मैं चारु सिंह हूँ। नीचे वाली बिल्डिंग में आई हूँ। तुम्हारी छत बहुत ऊँची है। यहाँ हवा अच्छी चलती है।”
कौस्तुभ ने धीमे से पूछा —
“क्या तुम्हारा कोई दोस्त नहीं?”
चारु ने कहा —
“शुरुआत तो किसी से ही करनी पड़ती है। मैं सोच रही थी… तुमसे करूँ?”
कौस्तुभ मुस्कराया —
“ठीक है। पर झूला मेरी जगह है।”
चौथा भाग – छत का क्लब
अब हर शाम कौस्तुभ और चारु छत पर मिलते।
कभी पतंग उड़ाते, कभी शब्द-पहेली खेलते, कभी डायरी में कुछ लिखते।
धीरे-धीरे छत दो लोगों की दुनिया बन गई।
फिर एक दिन चारु अपने भाई को साथ लायी — अर्जुन सिंह, 15 साल का, बहुत बातूनी और चित्रकार।
अर्जुन ने दीवार पर कोयले से लिखा —
“छत क्लब — प्रवेश केवल विशेष व्यक्तियों को”
अब हर शाम छत पर तीन बच्चे होते — और उनका क्लब।
नाम रखा गया — “छत का चमत्कार”
पाँचवाँ भाग – कहानी की शुरुआत
एक दिन कौस्तुभ ने एक नोटबुक निकाली —
“मैं कहानियाँ लिखता हूँ। लेकिन कभी पूरी नहीं कर पाता।”
चारु ने कहा —
“चलो, हम तीनों मिलकर एक कहानी लिखते हैं। हर दिन एक-एक पैराग्राफ।”
अर्जुन ने सुझाव दिया — “मैं उसकी चित्रकारी बनाऊँगा।”
और इस तरह शुरू हुई छत की कहानी —
जिसका मुख्य पात्र था एक गुप्त खजाना, तीन बच्चे, और एक रहस्यमयी बिल्ली।
कहानी लिखते-लिखते उन्हें खुद के भीतर एक ऊर्जा महसूस होने लगी।
कौस्तुभ ने पहली बार महसूस किया —
“शायद दोस्ती में खुद को खोकर ही हम खुद को पाते हैं।”
छठा भाग – जब छत बन गई मंच
तीन हफ्ते बाद तीनों ने तय किया —
“हम इस कहानी को बच्चों के सामने सुनाएँगे।”
मोहल्ले के बाकी बच्चों को बुलाया गया। पुराने पर्दे का स्टेज बना, पेपर की टोपीयाँ बनीं, चित्रों से सजावट की गई।
शाम को 6 बजे ‘छत मंच’ शुरू हुआ।
चारु ने कहानी सुनाई, अर्जुन ने चित्र दिखाए, और कौस्तुभ ने पृष्ठभूमि संगीत बजाया।
ताली बजती रही — छोटे बच्चे हँसते रहे, बड़ों ने तारीफ की।
दादी बोलीं —
“तू अकेला नहीं है बेटा, अब तू सबका है।”
सातवाँ भाग – जब माँ ने पढ़ा बेटा
एक शाम माँ ने कौस्तुभ की डायरी देखी।
उसमें लिखा था —
“मैं अब छत पर अकेला नहीं होता। वहाँ दोस्त मिलते हैं, कहानियाँ चलती हैं, और मैं खुद से बात कर पाता हूँ।”
माँ की आँखें भर आईं।
उन्होंने कहा —
“हमने कभी तुम्हारे अकेलेपन को नहीं समझा। अब जान गई हूँ, कभी-कभी छतें ज़मीन से ऊँची होती हैं।”
अंतिम भाग – छत अब भी वहीं है
छुट्टियाँ ख़त्म हो गईं। स्कूल दोबारा शुरू हुआ।
पर छत क्लब अब भी सक्रिय है — हर रविवार, सब बच्चे छत पर आते हैं।
कभी कहानी सुनते हैं, कभी नई गतिविधियाँ करते हैं — और हर बार कौस्तुभ झूले पर बैठकर डायरी में लिखता है।
“जब मैं अकेला था, तब मैं छत पर आया था। पर छत ने मुझे अकेला नहीं छोड़ा। उसने मुझे दोस्त दिए, कहानी दी, और खुद को खोजने का रास्ता भी।”
अब वह जबलपुर के हर स्कूल में जाता है —
‘छत क्लब’ की तर्ज़ पर किशोर बच्चों को कल्पना और संवाद सिखाने।
और जब कभी कोई बच्चा कहता है —
“मैं अकेला हूँ…”
तो कौस्तुभ मुस्कराता है और कहता है —
“तो चलो, तुम्हारे लिए भी एक छत खोजते हैं!”
समाप्त
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