काग़ज़ की नाव और बादलों का सपना
संक्षिप्त विवरण:
यह कहानी है अनया जोशी की — एक 14 वर्षीय उत्साही, जिज्ञासु और स्वप्नदर्शी लड़की की जो उत्तराखंड के एक छोटे से नगर टिहरी में रहती है। वह बारिश से डरती है, अंधेरे से कतराती है, और हमेशा दूसरों की बातों से प्रभावित होती रही है। लेकिन एक बरसाती छुट्टी के दौरान, जब स्कूल बंद हो जाता है और बाहर केवल बादल, बारिश और मिट्टी की महक होती है — तब अनया खुद को, अपनी सोच को, और अपनी रचनात्मकता को खोज निकालती है।
‘काग़ज़ की नाव और बादलों का सपना’ एक मधुर, प्रेरणादायक और संवेदनशील किशोर-कथा है, जो यह बताती है कि सपनों की शुरुआत हमेशा भीतर से होती है, और जब बादल बरसते हैं, तो केवल पेड़-पौधे ही नहीं, आत्मा भी भीगती है।
पहला भाग – जब बारिश दुश्मन लगती थी
अनया जोशी को बारिश से सख्त नफ़रत थी।
टिहरी की संकरी गलियों में जब बादल गरजते, तो वह कानों में उँगली डालकर बिस्तर में दुबक जाती।
जब उसके दोस्त बारिश में छतरी लेकर खेलते, तो वह खिड़की से बाहर झाँककर बस सूखा आसमान मांगती।
“बारिश में कीचड़ होता है, कपड़े गीले होते हैं, रास्ते बंद हो जाते हैं,” वह बार-बार कहती।
माँ हँसतीं —
“तू कभी बादलों से दोस्ती करेगी तो जानेगी कि उनमें कितना संगीत है।”
लेकिन अनया को बादल भारी लगते थे — धुँधले, डरावने, और अपनी ही दुनिया में उलझे हुए।
दूसरा भाग – वह सोमवार, जब स्कूल बंद हुआ
जुलाई का तीसरा सोमवार था। सुबह-सुबह स्कूल से सूचना आई —
“भारी बारिश के कारण विद्यालय आगामी तीन दिन बंद रहेगा।”
अनया ने यह सुनकर राहत की साँस ली। कोई टेस्ट नहीं, कोई होमवर्क नहीं।
पर जब उसने खिड़की से बाहर देखा, तो बादल ऐसे लटक रहे थे जैसे ज़मीन को निगलने आए हों।
दोपहर होते-होते बिजली चली गई। घर में अँधेरा और शांति।
पापा ऑफिस नहीं जा पाए, माँ रसोई में थीं, और अनया की किताबें किसी कोने में पड़ी थीं।
बोरियत की लहर थी — किसी मोबाइल का नेटवर्क नहीं, कोई दोस्त घर नहीं आ सकता।
तभी माँ ने पास आकर एक पुरानी चीज़ उसकी ओर बढ़ाई —
“ये लो, तुम्हारा बचपन का स्क्रैपबुक। जब तू छह साल की थी, तब बारिश में काग़ज़ की नाव बनाकर उसमें ये चित्र बनाती थी।”
अनया ने स्क्रैपबुक खोली —
भीग चुके पुराने काग़ज़, टेढ़े-मेढ़े चित्र, और एक कोने में लिखा था —
“जब मैं बड़ी होऊँगी, तो बादलों को रंग दूँगी।”
तीसरा भाग – फिर से शुरुआत हुई
अनया ने कमरे में मोमबत्ती जलाई, और स्क्रैपबुक को गौर से देखने लगी।
हर चित्र में एक नाव थी — कभी पत्तियों से बनी, कभी फूलों से, कभी रंग-बिरंगी काग़ज़ की।
उसे याद आया — कैसे वो बारिश के पानी में छोटी-छोटी नावें बहाया करती थी।
“कितना कुछ भूल गई हूँ,” उसने सोचा।
उसने एक सफेद काग़ज़ लिया, एक पेंसिल और रंगों का पुराना डब्बा निकाला, और धीरे-धीरे नाव बनानी शुरू की।
फिर बादल बनाए — नीले, सफ़ेद, भूरे, बैंगनी।
हर बादल में उसने एक चेहरा बनाया — हँसता हुआ, गुनगुनाता, कुछ ग़ुस्से वाला।
उसने अपनी ही कल्पना में एक जगह बनाई —
“बादलों का नगर”, जहाँ हर काग़ज़ की नाव एक सपना लेकर पहुँचती थी।
चौथा भाग – तीन दिन, तीन नावें, तीन सपने
अब हर दिन एक नई नाव बनती थी।
पहली नाव का नाम था — “डर की दरिया से पार”
जिसमें उसने अपने डर को समेटा, और लिखा —
“मैं बादलों से नहीं डरती, मैं उन्हें सुनती हूँ।”
दूसरी नाव थी — “छोटी सोच का समंदर”
जहाँ उसने अपनी उन आदतों को लिखा जिन्हें समाज ने थोप दिया था —
“लड़की हो, बारिश में मत भीगो”, “बीमार हो जाओगी”, “गंदे हो जाओगे”
और तीसरी नाव —
“मैं जो मैं हूँ”, जिसमें सिर्फ एक चित्र था — एक लड़की, खुले बाल, भीगी हुई, हाथ फैलाए, और बादलों की ओर मुस्कराते हुए।
तीनों नावें अनया ने अपनी बालकनी में बारिश के बहते पानी में छोड़ीं।
पाँचवाँ भाग – माँ की डायरी और पापा की मुस्कान
चौथे दिन सुबह, जब मौसम कुछ साफ़ हुआ, माँ ने अनया को अपने पास बुलाया।
“एक चीज़ दिखानी है तुझे,” उन्होंने कहा।
उन्होंने एक पुरानी डायरी निकाली —
उसमें माँ की पुरानी कविताएँ थीं —
बारिश पर, बादलों पर, छोटी-छोटी नावों पर।
“तू जैसी थी, मैं वैसी थी। तू जो देख रही है, वो कभी मैं भी देखती थी। लेकिन ज़िंदगी की रफ़्तार में सब छूट गया।”
अनया ने डायरी को चूमा और बोली —
“मैं वादा करती हूँ माँ, मैं अपनी नावों को कभी डूबने नहीं दूँगी।”
पापा, जो अब तक सब कुछ दूर से देख रहे थे, मुस्कराए।
उन्होंने कहा —
“अनया, मैं चाहता हूँ कि तुम इन चित्रों और नावों को स्कूल में प्रदर्शनी के लिए भेजो। वहाँ ‘कला सप्ताह’ आ रहा है।”
अनया चौंकी —
“मैं? अपनी नावों को सबको दिखाऊँ? लोग हँसेंगे…”
पापा ने उसका कंधा थामा —
“लोग क्या कहेंगे, अगर ये सोचकर रुक गए होते तो न कोई नाव बनती, न कोई उड़ान भरता।”
अनया ने हिचकिचाते हुए हामी भर दी। उसने तीनों नावों के साथ बादलों की उस कल्पनात्मक दुनिया को रंग-बिरंगे चित्रों में उतारा और नीचे लिखा —
“हर डर के पीछे एक सपना होता है। मेरी नाव उसी सपने की ओर बढ़ी है।”
अंतिम भाग – नावें अब लोगों के सपने बन गईं
स्कूल में प्रदर्शनी लगी।
अनया की नावें और चित्र एक कोने में सजे थे —
लोग रुकते, पढ़ते, और मुस्कराते।
एक छोटी बच्ची ने कहा —
“मम्मी, मुझे भी ऐसी नाव बनानी है।”
एक अध्यापक ने कहा —
“इन चित्रों में सादगी है, पर गहराई भी।”
स्कूल की प्रधानाचार्या ने अनया को मंच पर बुलाया और कहा —
“जब कोई बच्चा खुद से डरता नहीं, और अपने डर को कला में बदलता है — तब समाज आगे बढ़ता है। अनया, तुम हम सबकी प्रेरणा हो।”
अनया की आँखों में नमी थी, पर चेहरा चमक रहा था।
वही लड़की जो बारिश से डरती थी, अब सबसे ऊँचे मंच पर बादलों को रंग रही थी।
उस दिन शाम को जब हल्की फुहारें गिर रही थीं, अनया ने फिर एक नाव बनाई।
उस नाव पर उसने लिखा —
“अब बारिश दुश्मन नहीं, दोस्त है। वो आती है, मुझे भिगोती है, और कहती है — चलो, कुछ नया बनाते हैं।”
समाप्त
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