उलझनों से आगे
संक्षिप्त विवरण:
यह कहानी है कनुप्रिया शर्मा की — एक 16 वर्षीय लड़की जो जयपुर के एक साधारण परिवार से ताल्लुक रखती है। उसका जीवन पढ़ाई, स्कूल और परिवार के बीच बँटा हुआ है, लेकिन उसका मन हर समय नए-नए विचारों और सवालों से उलझा रहता है। कभी वह अपने भविष्य को लेकर उलझती है, कभी दोस्ती को लेकर, कभी समाज की अपेक्षाओं से और कभी अपने मन की अनकही बातों से। एक दिन उसकी मुलाक़ात होती है सौम्या से — एक बुज़ुर्ग महिला जो उसी कॉलोनी में अकेली रहती है और जिसके पास एक ऐसा बगीचा है, जहाँ जाकर हर कोई खुद को ढूंढ़ सकता है।
‘उलझनों से आगे’ एक प्रेरणास्पद, सकारात्मक और दिल से निकली कहानी है जो किशोरों को यह सिखाती है कि हर सवाल का जवाब किताबों में नहीं, कभी-कभी किसी बातचीत, किसी अनुभव या खुद की खोज में छुपा होता है।
पहला भाग – सवालों से भरा मन
कनुप्रिया को किताबों से लगाव था, लेकिन अब वे भी उसे भारी लगने लगी थीं।
हर रोज़ माँ कहतीं —
“बोर्ड पास कर लो, फिर जो मन चाहे करो।”
पिता सुबह अख़बार पढ़ते हुए बोलते —
“हम तो चाहते हैं कि तू डॉक्टर बने, जैसे तेरी बुआ का बेटा बन रहा है।”
कनुप्रिया मुस्कराकर सिर हिला देती, पर उसका मन कहता —
“क्या मैं वही बनूँ जो सब कहें, या वो जो मैं खुद भी नहीं जानती?”
स्कूल में पढ़ाई अच्छी चल रही थी, पर वह भीतर से उलझी हुई महसूस करती थी।
कभी लगता कि वह अकेली है, कभी यह लगता कि शायद दुनिया ही बहुत ज़्यादा बोलती है।
उसकी सबसे करीबी दोस्त रिद्धिमा अब दूसरे स्कूल में चली गई थी, और नए दोस्त बनाने में उसे हिचकिचाहट होती थी।
उसका मन करता कि बस कहीं चले जाए — अकेले, जहाँ उसे कोई कुछ न कहे।
दूसरा भाग – एक पुराना बगीचा
उनके घर से दो गली पीछे एक पुराना बगीचा था — जिसे कोई देखने नहीं जाता था।
बगीचे में झूले नहीं थे, न रंगीन फूल, न रोशनी — बस कुछ छायादार पेड़ और मिट्टी से बनी छोटी पगडंडियाँ थीं।
एक दिन स्कूल से लौटते हुए कनुप्रिया वहाँ चली गई।
वह पेड़ के नीचे बैठी और आँखें बंद कर लीं।
धीरे-धीरे उसे हवा की सरसराहट, पत्तों की सरगम और मिट्टी की गंध महसूस होने लगी।
वह रोज़ वहाँ जाने लगी — यह उसका निजी कोना बन गया।
और वहीं एक दिन उसकी मुलाकात हुई सौम्या से।
तीसरा भाग – सौम्या और सच्ची बातें
सौम्या 65 वर्षीय महिला थीं, हल्के नीले रंग की साड़ी में, सफ़ेद बालों में बंधा जूड़ा और हाथ में एक कप चाय।
उन्होंने कनुप्रिया को देखकर मुस्कराते हुए कहा —
“इस बगीचे को कोई अपना कहता नहीं था, अब लगता है किसी ने इसे देखा है।”
कनुप्रिया ने झिझकते हुए पूछा —
“आप यहीं रहती हैं?”
“हाँ, वहीं सामने वाले मकान में। अकेली हूँ। पर इस बगीचे ने मुझे कभी अकेला नहीं महसूस होने दिया।”
धीरे-धीरे कनुप्रिया और सौम्या के बीच बातचीत शुरू हुई।
कनुप्रिया ने एक दिन पूछा —
“क्या आपने कभी खुद को खोया है?”
सौम्या ने चाय की चुस्की ली और कहा —
“हर कोई खोता है बेटा। पर कुछ लोग रोते हैं और कुछ लोग खोजते हैं। तू कौन बनना चाहती है?”
कनुप्रिया चुप हो गई। शायद उसे पहली बार किसी ने ऐसा सवाल किया था।
चौथा भाग – खुद को समझना शुरू किया
अब हर दोपहर जब कनुप्रिया स्कूल से आती, खाना खाकर चुपचाप बगीचे चली जाती।
वहाँ वह सौम्या से बात करती — कभी जीवन के फैसलों पर, कभी रिश्तों पर, कभी खुद से।
एक दिन सौम्या ने उसे एक पुरानी कॉपी दी —
“इसमें जो उलझनें हैं, उन्हें लिख। शायद जब तू उन्हें देखेगी, तो कुछ सुलझ जाएँगी।”
कनुप्रिया ने लिखना शुरू किया।
“क्या मैं कभी कुछ बड़ी बनूँगी?”
“क्या मुझे लोगों को खुश करने के लिए ही जीना है?”
“क्या मेरा डर मेरा असली रूप है?”
हर सवाल के आगे उसने जवाब नहीं लिखा — लेकिन इतना जरूर हुआ कि वह सवाल अब भीतर नहीं थे, बाहर आ चुके थे।
पाँचवाँ भाग – माँ के साथ पहली खुली बात
एक शाम माँ ने देखा कि कनुप्रिया की आँखों में हल्का-सा सुकून था।
माँ ने पूछा —
“कुछ कहना चाहती है?”
कनुप्रिया ने धीमे स्वर में कहा —
“माँ, क्या मैं डॉक्टर बनना चाहती हूँ या आप बनाना चाहती हैं?”
माँ चौंकीं। फिर बोलीं —
“तू जो चाहे बन, बस मेहनत मत छोड़ना।”
यह पहली बार था जब कनुप्रिया को लगा कि उसकी आवाज़ सुनी गई है।
उस रात उसने सौम्या को जाकर बताया —
“मैंने माँ से बात की। खुलकर। और अब मुझे डर नहीं लग रहा।”
सौम्या मुस्कराईं —
“बिल्कुल सही। जब दिल खुलता है, तो रास्ते खुद-ब-खुद दिखते हैं।”
छठा भाग – एक नई दिशा
कनुप्रिया ने तय किया कि वह कला और मनोविज्ञान को आगे बढ़ाना चाहती है।
वह अपने स्कूल में ‘टीनेज टॉक’ नाम से एक साप्ताहिक सत्र शुरू करने का प्रस्ताव लेकर गई — जहाँ हर किशोर अपनी उलझनों पर बात कर सके।
शुरुआत में कुछ ही लोग आए, लेकिन धीरे-धीरे वह मंच सभी का पसंदीदा बन गया।
अब बच्चे खुलकर बात करते, डर साझा करते, और समाधान खोजते।
कनुप्रिया अब केवल सवालों से नहीं, उनके जवाबों से जुड़ी हुई थी।
अंतिम भाग – उलझनों से आगे
साल बीत गया। कनुप्रिया अब 12वीं कक्षा में थी।
उसे एक स्थानीय आर्ट काउंसिल से इन्विटेशन मिला —
“युवा विचारों पर संवाद” के लिए।
वहाँ उसने मंच पर कहा —
“कभी-कभी हम सोचते हैं कि हमारी उलझनें हमें रोक रही हैं, पर वही हमें ढूँढ़ने का रास्ता दिखाती हैं।”
बगीचे में आज भी सौम्या बैठती हैं — अब अकेली नहीं, क्योंकि कनुप्रिया की दोस्त रश्मि, अनुज और सचिन भी वहाँ आते हैं।
हर कोई कुछ न कुछ कहता है, और सौम्या सुनती हैं — जैसे उस बगीचे की मिट्टी हर बात अपने भीतर सहेज लेती है।
कनुप्रिया ने अपनी डायरी में अंतिम पंक्ति लिखी —
“अब मैं अपने सवालों से डरती नहीं, उन्हें पहचानती हूँ। और हर जवाब मेरी ही राह से होकर आता है।”
समाप्त
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