समय की भूल
एक वैज्ञानिक की खोज, जिसने समय को मोड़ दिया और मानव अस्तित्व को सवालों में बदल दिया।
साल 2089, भारत के दिल्ली प्रांत में स्थित एक गुप्त प्रयोगशाला में, डॉ. इशान मल्होत्रा एक ऐसे वैज्ञानिक थे जिनका जीवन केवल एक उद्देश्य के इर्द-गिर्द घूमता था — समय को नियंत्रित करना। वह मानते थे कि यदि समय को मोड़ा जा सके, तो मानव अपने अतीत की गलतियों को सुधार सकता है, और भविष्य की आपदाओं से पहले ही बचाव कर सकता है। मगर यह यात्रा केवल एक खोज नहीं, बल्कि एक ऐसी त्रासदी में बदलने वाली थी जो पूरे मानव समाज को उसकी जड़ों से हिला देगी।
प्रयोग की तैयारी
डॉ. इशान ने पिछले आठ वर्षों में ‘काल-प्रवाह अनुनादी यंत्र’ नामक एक यंत्र तैयार किया था, जो समय के बहाव में सूक्ष्म कंपन उत्पन्न करके एक संकीर्ण सुरंग — एक “काल-सुरंग” — खोल सकता था। इसे उन्होंने “कृष्ण-रेखा” नाम दिया था, जो एक अदृश्य समय-रेखा को भेदती थी। उनके पास वित्तीय सहयोग भी गुप्त था, जो उन्हें एक निजी रक्षा-निगम ‘दशम सुरक्षा परिषद’ से प्राप्त होता था।
परंतु इस खोज का मूल्य सिर्फ तकनीक नहीं था। हर प्रयोग के साथ, उन्होंने देखा कि जब यंत्र सक्रिय होता, तो प्रयोगशाला के भीतर मौजूद घड़ियाँ तेज़ी से पीछे की ओर चलने लगतीं, आसपास के तापमान में अस्वाभाविक गिरावट आती, और दीवारों पर बनी धातु की सतह पर रहस्यमयी चित्र उभर आते — जैसे किसी और समय से कोई संदेश आ रहा हो।
पहला प्रवेश
साल 2091, मार्च की एक रात को, डॉ. इशान ने अंततः यंत्र को पूर्ण सक्रिय किया। उन्होंने स्वयं को एक समय सुरंग के भीतर फेंकने का निर्णय लिया। पूरी प्रयोगशाला अंधकार में डूब गई, जैसे सारे विद्युत स्रोतों ने आत्मसमर्पण कर दिया हो।
जैसे ही उन्होंने सुरंग में प्रवेश किया, उन्होंने पाया कि वह वर्ष 2042 में आ पहुंचे हैं। दिल्ली उसी स्थान पर थी, लेकिन हवा में वह प्रदूषण नहीं था, गगनचुंबी इमारतों की बजाय हरियाली फैली थी, और सबसे चौंकाने वाली बात — लोग उन्हें घूर रहे थे, जैसे उन्होंने कोई कानून तोड़ दिया हो।
यह एक ऐसा भारत था, जहाँ सरकार का स्वरूप वैकल्पिक विज्ञान के अधीन हो चुका था। हर व्यक्ति के शरीर में ‘सूक्ष्म जैव-प्रणालियाँ’ लगी थीं जो उनके सोचने, बोलने और निर्णय लेने की क्षमता को नियंत्रित करती थीं।
वैकल्पिक भारत की भयावहता
डॉ. इशान को जल्द ही पता चला कि 2040 में एक ‘कृत्रिम संज्ञान विद्रोह’ हुआ था, जिसके चलते सरकार ने मानव सोच को नियंत्रित करने वाला एक जैव-प्रणालीक तंत्र स्थापित कर दिया था। इसका नाम था — “मानव नियंत्रण प्रणाली”।
इंसानों ने अपने अधिकार विज्ञान को सौंप दिए थे, ताकि अशांति और युद्धों से बचा जा सके। पर अब हर निर्णय, हर विचार, और यहां तक कि प्रेम भी सरकार द्वारा निर्धारित होता था।
इशान को महसूस हुआ कि भविष्य को बचाने के लिए उन्हें अतीत में जाकर इस प्रणाली की नींव को नष्ट करना होगा। पर इसके लिए उन्हें 2025 तक लौटना था — वहीं समय जब इस परियोजना की शुरुआत हुई थी।
काल-सुरंग का पुनरागमन
इशान ने भविष्य की तकनीक का उपयोग कर एक पोर्टेबल यंत्र बनाया, जिससे वह फिर से काल-सुरंग खोल सकते थे। उन्होंने देखा कि जैसे ही उन्होंने यंत्र को सक्रिय किया, एक बार फिर चित्र दीवारों पर उभरने लगे — पर इस बार ये चित्र चेतावनी थे।
“यदि तुम समय को छुओगे, समय तुम्हें मिटा देगा।”
इस चेतावनी को नज़रअंदाज़ करते हुए, इशान 2025 लौट आए। वहां उन्होंने सरकार की एक गुप्त बैठक में प्रवेश किया और प्रमाण प्रस्तुत किए कि यह परियोजना मानवता को एक कृत्रिम पिंजरे में बंद कर देगी। परंतु, उनकी चेतावनी को ‘मानसिक विकृति’ कहकर खारिज कर दिया गया।
समय की प्रतिक्रिया
समय स्वयं भी अब अस्थिर हो चुका था। 2025 में रहकर भी इशान को कभी-कभी वर्ष 2091 की घटनाएँ दिखने लगतीं। एक बार उन्हें अपनी ही मृत्यु का दृश्य दिखा, जहाँ वह एक जली हुई प्रयोगशाला में अकेले खड़े थे, चारों ओर राख थी और आकाश से आवाज़ आई —
“तुमने समय को छेड़ा, अब समय तुम्हें निगलेगा।”
धीरे-धीरे समय रेखाएँ उलझने लगीं। 2042 का भविष्य, 2089 की वर्तमान और 2025 का अतीत एक-दूसरे में घुलने लगे। पूरे भारत में असामान्य घटनाएँ होने लगीं — घड़ियाँ रुक गईं, लोग एक पल में बूढ़े हो गए और कुछ पल भर में गायब हो गए।
अंतिम मोड़
इशान को अब केवल एक ही उपाय सूझा — अपनी ही खोज को समाप्त करना। उन्होंने 2025 की प्रयोगशाला में जाकर अपने पुराने ‘काल-प्रवाह यंत्र’ को विस्फोट से नष्ट कर दिया।
उस विस्फोट ने न केवल यंत्र को नष्ट किया, बल्कि समय रेखा को भी पुनः स्थिर कर दिया।
इशान स्वयं उस विस्फोट में नष्ट हो गए, पर उनकी चेतावनी भविष्य की दीवारों पर अमर हो गई:
“जब भी मानव समय को अपने अधीन करना चाहेगा, समय उसे अपनी सीमाओं की याद दिलाएगा।”
यह कहानी हमें यही सिखाती है कि विज्ञान की सीमाएँ तब तक ही सुंदर होती हैं जब तक वे संतुलन बनाए रखें। जैसे ही कोई मनुष्य समय, जीवन और चेतना को वश में करने की कोशिश करता है, वह अपने ही विनाश का बीज बोता है।
समाप्त
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