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अधूरी विरासत

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अधूरी विरासत

एक बेटे की तलाश, एक पिता की पहचान, और एक शहर की चुप्पी पर आधारित गहरी मानवीय कथा

बांदा जिले के पुराने मोहल्ले ‘कच्ची हवेली’ में एक खामोश और अजनबी-सा आदमी पिछले दो महीने से किराये पर रह रहा था। नाम बताया था – शरद शुक्ला। उम्र लगभग चालीस, चेहरा गंभीर, चाल सीधी, और आँखों में एक ऐसा दर्द, जिसे कोई किताब नहीं समझा सकती थी।

शरद दिन में अदालत की ओर जाता और रात को एक स्टील की पेटी से पुराने काग़ज़, चिट्ठियाँ और फ़ोटो निकालकर देर रात तक उन्हें घूरता रहता। मोहल्ले में लोग बातें करने लगे थे – “कोई वकील है शायद… या फिर कोई भगोड़ा… इतना खामोश आदमी भला क्यों रहेगा यहाँ?”

पर सच वो नहीं था, जो दिख रहा था।

एक पहचान की तलाश

शरद को बचपन से ही एक सवाल खाता आया था – “मेरे पिता कौन थे?” उसकी माँ सुनीता ने कभी नहीं बताया। हर बार टाल जातीं, या गुस्से में कहतीं – “उसका नाम मत लो… जो गया, वो लौट कर नहीं आया।”

शरद ने माँ को बुढ़ापे में खो दिया। मगर माँ के पुराने संदूक से निकली एक लाल रंग की डायरी ने उसकी ज़िंदगी को झकझोर दिया।

उस डायरी में लिखा था –
“तेजबहादुर बाजपेयी, सिविल कोर्ट बांदा, 1982… मेरी सबसे बड़ी भूल… और शरद मेरी सबसे बड़ी सज़ा…”

शरद को लगा मानो ज़मीन खिसक गई हो। वो कोई साधारण आदमी नहीं था – वह एक सफल सरकारी वकील था, मगर उस दिन से उसका जीवन अब केवल एक ही लक्ष्य में बदल गया – अपने पिता को ढूँढना।

पुराना शहर, नई परतें

बांदा लौटते वक्त शरद को समझ में आया कि यह शहर अब वही नहीं था जो माँ की यादों में था। चौक की पान दुकानें अब मोबाईल रीचार्ज सेंटर बन गई थीं, मगर ‘तेजबहादुर बाजपेयी’ नाम अब भी न्यायालय में सम्मान से लिया जाता था।

शरद ने अदालत में एक सहायक के रूप में खुद को छुपाकर काम पर रखा, ताकि न कोई सवाल पूछे, न शक हो। उसने धीरे-धीरे पुराने कर्मचारियों, चपरासियों और लाइब्रेरी वालों से संबंध बनाए।

हर दस्तावेज़, हर तारीख, हर हस्ताक्षर को उसने छाना, मगर तेजबहादुर का कोई स्पष्ट पता नहीं मिला।

चुप्पी की दीवारें

शहर के बड़े लोगों से जब वह नाम लेता, वे एक गहरी चुप्पी ओढ़ लेते।
“तेजबहादुर साहब…?”
“बड़े शरीफ़ आदमी थे। मगर फिर एक दिन अचानक सब छोड़कर चले गए।”

“क्यों गए?”
“कभी मत पूछना… बहुत गहरा मामला था…”

शरद को महसूस हुआ कि उसके पिता की कहानी में कोई कलंक, कोई छुपी हुई सच्चाई थी जिसे लोग छूना नहीं चाहते थे।

गुमनाम पत्र और सच की शुरुआत

एक रात उसके कमरे के दरवाजे पर एक चिट्ठी फिसलाई गई—
“तेजबहादुर को ढूंढने की कोशिश बंद करो। जो दफ्न हो चुका है, उसे जगाने की गलती मत करो। – एक शुभचिंतक”

शरद का खून खौल उठा। अब वह पीछे हटने वालों में से नहीं था।

उसी हफ्ते उसे एक पुराना रजिस्टर मिला – 1983 की केस डायरी। उसमें एक केस था जिसमें तेजबहादुर ने एक मंत्री के ख़िलाफ़ गवाही दी थी – यौन शोषण के एक मामले में।

और केस के बाद, वे एकदम ग़ायब हो गए थे।

माजरा और नाटकीय मोड़

शरद ने तहकीकात शुरू की। गांव ‘माजरा’ में उसे खबर मिली कि एक बूढ़ा आदमी पिछले 20 वर्षों से एक खंडहर जैसे मकान में रहता है, लोगों से दूर, मगर हर शुक्रवार मंदिर जाता है।

शरद वहाँ पहुँचा। देखा – एक दुबला-पतला बुज़ुर्ग, झुकी हुई कमर, आँखों पर धूप का चश्मा, सफेद कुरता और खामोश चेहरा।

शरद ने धीरे से पूछा – “आप तेजबहादुर बाजपेयी हैं?”

बूढ़े ने कहा – “नाम मत लो। मैंने वो नाम जला दिया है।”

शरद ने अपनी माँ की डायरी उनके सामने रख दी। एक लंबी खामोशी छा गई।

फिर बूढ़े ने कहा – “मैंने तुम्हें पैदा होते नहीं देखा, मगर मैंने हर रात तुम्हारे होने का अपराध महसूस किया है। मैंने तुम्हारी माँ से माफी माँगने की कोशिश की थी, मगर उसके आत्मसम्मान ने मुझे ठुकरा दिया।”

शरद की आँखों में आँसू थे – “तो क्या आप मेरे पिता हैं?”

तेजबहादुर ने आँखें बंद कर लीं – “हाँ… लेकिन मैं तुम्हें कुछ नहीं दे सकता बेटा – न नाम, न घर, न समाज का सर्टिफिकेट… सिर्फ पछतावा है मेरे पास।”

शहर की अदालत और अंतिम फैसला

शरद ने अगले दिन अदालत में केस दायर किया – शरद शुक्ला बनाम तेजबहादुर बाजपेयी: पितृत्व की मान्यता।

शहर में बवाल मच गया। अख़बारों ने लिखा – “बेटे ने बाप को कटघरे में खड़ा किया।”

तेजबहादुर अदालत आए, पहली बार अपने बेटे के सामने गवाही दी –
“हाँ, शरद मेरा खून है। मैं उससे नहीं भाग सकता।”

जज ने फैसला दिया – “तेजबहादुर बाजपेयी को शरद का जैविक पिता घोषित किया जाता है।”

नई पहचान, अधूरा रिश्ता

शहर अब उसे तेजबहादुर का बेटा कहने लगा, मगर शरद को अब भी सुकून नहीं था। उसने अंतिम बार पिता से पूछा – “क्या आप मेरे साथ चलेंगे, बनारस? माँ की समाधि पर फूल चढ़ाने?”

तेजबहादुर ने सिर हिलाया – “मैं अब किसी के साथ नहीं चल सकता। मैं बस बैठ सकता हूँ – उन गुनाहों के सामने, जो मैंने किए नहीं थे… और उन फैसलों के सामने, जो मैंने कभी लिए ही नहीं।”

शरद चुपचाप लौट गया। वह अदालत में काम करता रहा, अब लोग उसे “बाजपेयी साहब का बेटा” कहते थे – मगर उसे अब भी खुद को साबित करना बाकी था… अपने शब्दों से नहीं, अपने कर्मों से।

कभी-कभी सच्चाई मिल भी जाए, तो दिल उसे कबूल करने में उम्र लगा देता है। यह कहानी उसी उम्र की है, जो एक बेटे और पिता के बीच कभी पूरी नहीं हो पाती।

समाप्त


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