कांच की दीवार
एक सफल महिला, उसके टूटते रिश्ते, और समाज की जमी हुई चुप्पियों के बीच आत्मा की टकराहट पर आधारित एक सजीव दास्तान
संगीत और साहित्य के शहर प्रयागराज में, जहां गंगा और यमुना के बीच की ज़मीन पवित्र मानी जाती है, वहीं एक आलीशान बंगले में रहती थी – वेदिका राय। उम्र – 46 वर्ष, देश की सबसे चर्चित महिला उद्योगपतियों में से एक, ‘राय टेक्स्टाइल्स’ की संस्थापक और चेयरपर्सन।
लोगों की निगाह में वेदिका प्रेरणा थी – मेहनती, आत्मनिर्भर, और स्वप्नदर्शी। लेकिन वेदिका की ज़िंदगी में एक ऐसा कोना था, जो न प्रकाशित हुआ, न समझा गया – एक भावनात्मक अकेलापन, जो हर उपलब्धि के साथ और गहरा होता गया।
चुप रिश्तों की शुरुआत
वेदिका की शादी हुई थी – डॉ. अर्णव राय से। वह एक मनोचिकित्सक थे, सधा हुआ व्यक्तित्व, आत्मविश्वासी आवाज़ और एक ठहरी हुई दृष्टि के मालिक।
शादी के शुरुआती वर्षों में सब ठीक था – दो समर्पित लोग, एक-दूसरे की कामयाबी में भागीदार। मगर जैसे-जैसे वेदिका का व्यापार बढ़ा, अर्णव का व्यवहार बदलता गया।
वह कम बोलने लगे, अधिक व्यस्त रहने लगे, और धीरे-धीरे वेदिका के सपनों को “दूसरों की नकल” कहने लगे।
“तुम अब एक पत्नी नहीं, बस एक मशीन हो वेदिका,” अर्णव ने एक दिन कहा था।
और उस दिन से वेदिका ने चुप रहना सीख लिया।
बेटी की बगावत
उनकी एक ही बेटी थी – इरा। उम्र 21 साल। लंदन में पढ़ाई कर रही थी। बहुत तेज, बहुत स्वतंत्र, लेकिन बहुत अधिक क्रोधित भी।
इरा को लगता था कि उसकी माँ ने कभी उसका ध्यान नहीं रखा। “आपके पास हर चीज़ के लिए समय है – फैब्रिक के रंगों के लिए, फैशन शो के लिए, इंटरव्यू के लिए – बस मेरे लिए नहीं!”
वेदिका हर बार समझाना चाहती थी, मगर शब्द खो जाते थे।
सास का कटाक्ष
बंगले में रहती थीं अर्णव की माँ – जानकी देवी। पारंपरिक, कठोर और निर्णयात्मक।
“मुझे बहू नहीं, कंपनी की मालकिन मिली थी। घर की रसोई को जैसे श्राप लग गया है।“
वेदिका कोशिश करती रहीं – सुबह चाय बनाने से लेकर मंदिर की थाली सजाने तक – लेकिन जानकी देवी को हर बार कुछ न कुछ खटकता ही रहा।
टूटता घर, चमकता नाम
समाज वेदिका को पुरस्कारों से नवाजता रहा – महिला सशक्तिकरण सम्मान, व्यापार शिरोमणि पदक, यूनाइटेड नेशन्स की बिज़नेस आइकॉन…
मगर घर में हर खामोशी, हर दीवार, हर दहलीज़ एक सवाल पूछती थी – “क्या तुम सच में सफल हो?”
अर्णव की परछाई
अर्णव अब देर रात घर लौटते, कभी-कभी शराब के साथ, कभी बिना जवाब के।
एक दिन वेदिका को पता चला – अर्णव का रिश्ता किसी मनोवैज्ञानिक सहकर्मी से चल रहा है। वेदिका ने बिना आक्रोश के पूछा – “कब से?”
अर्णव बोले – “जब से तुम मेरी ज़िंदगी में केवल नाम बनकर रह गईं।”
वेदिका ने कुछ नहीं कहा। लेकिन उस रात उन्होंने अपने सारे पुरस्कार अलमारी में बंद कर दिए।
इरा की वापसी
इरा एक रात अचानक लौटी – चुप, शांत और आँखों में आँसू लिए। उसने कहा – “माँ, मुझे डिप्रेशन है। मैं रोज़ नींद की गोलियाँ खाती हूँ। मैं नहीं जानती कि मुझे क्या चाहिए।”
वेदिका ने पहली बार उसे गले लगाया – बिना किसी शब्द के।
उस रात दो औरतें – एक माँ और एक बेटी – साथ बैठीं, और अपने-अपने टूटे सपनों की किरचें बीनती रहीं।
विद्रोह नहीं, निर्णय
वेदिका ने एक सुबह सबके सामने कहा – “मैं अर्णव से तलाक़ ले रही हूँ।”
बंगले में सन्नाटा पसर गया। जानकी देवी ने रोते हुए कहा – “तू घर तोड़ रही है।”
वेदिका ने शांत स्वर में कहा – “जो कभी बना ही नहीं, वो क्या टूटेगा?”
समाज की निगाह
अख़बारों ने लिखा – “वेदिका राय – महिला सशक्तिकरण की मूरत या पारिवारिक विफलता?”
न्यूज़ चैनलों ने बहस की – “क्या सफलता की भूख रिश्तों की बलि लेती है?”
मगर वेदिका चुप रही। उसने इंटरव्यू देने बंद कर दिए। उसने पुरस्कार लौटाने शुरू किए।
नया घर, नई सुबह
वेदिका ने शहर के बाहर एक साधारण-सा घर लिया – जहाँ इरा के कमरे की दीवारों पर अब तस्वीरें थीं, जहाँ रसोई से हँसी सुनाई देती थी, और जहाँ वेदिका हर सुबह खुद पौधे सींचती थी।
उसने एक ट्रस्ट शुरू किया – “कांच की दीवार” – उन महिलाओं के लिए जो बाहरी दुनिया में तो मजबूत हैं, मगर घर के अंदर अनसुनी, अदृश्य और अस्वीकार्य बनी रहती हैं।
अंतिम स्वीकृति
एक दिन जानकी देवी मिलने आईं – अकेली, टूटी और पछतावे से भरी हुईं।
“मैंने तुम्हें कभी बेटी नहीं माना… पर अब समझती हूँ कि तुमने कितना सहा।”
वेदिका ने उन्हें कुर्सी दी – “देर हुई है, मगर दरवाज़ा अब भी खुला है।”
यह कहानी उस आवाज़ की है जो अक्सर सफलता की तालियों के बीच दबा दी जाती है। यह कहानी उन औरतों की है जिनकी आत्मा हर रात चुपचाप टूटती है – और फिर अगली सुबह खुद को जोड़ती है।
समाप्त
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