रक्त की पुकार
एक ऐतिहासिक युद्धगाथा जिसमें प्रतिशोध, राजनीति और वीरता की मिसालें रची जाती हैं – जब दो महाशक्तियाँ टकराईं, तो इतिहास की ज़मीन लहू से भीग उठी।
बहुत समय पहले की बात है, जब भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमी छोर पर स्थित शक्तिशाली राज्य दुर्गवर्धन का शासन अपने वैभव और अनुशासन के लिए प्रसिद्ध था। इसकी सीमाएँ उत्तर में बर्फीली पर्वत श्रृंखलाओं से लेकर दक्षिण के मरुस्थलों तक फैली थीं। महाराज विरेंद्रसेन इस सम्राज्य के चतुर, दृढ़निश्चयी और पराक्रमी शासक थे। उनकी सेना में एक लाख घुड़सवार, पचास हजार धनुर्धर, और एक विशाल हाथी-दल था। राज्य का मुख्य किला सिंहगिरि दुर्ग अजेय माना जाता था।
लेकिन इस भूमि की शांति तब टूटी जब पूर्वी सीमाओं पर स्थित राज्य अमर्त्यनगर के नवयुवक राजा अर्जुनकेतु ने सिंहगिरि दुर्ग को अपने अधीन करने का स्वप्न देखा। अर्जुनकेतु युवा,野ambitious और पराक्रमी था, किंतु उससे कहीं अधिक अहंकारी। उसकी दृष्टि केवल युद्धविजय पर थी। उसने अपने मंत्रीगणों और सेनापतियों से परामर्श किए बिना दुर्गवर्धन पर चढ़ाई का आदेश दे डाला। उसके पास संख्या में अधिक सेना थी, परंतु अनुभवहीनता और अधीरता उसमें स्पष्ट झलकती थी।
सेनाओं की तैयारी
विरेंद्रसेन ने जब अमर्त्यनगर की सेनाओं की गतिविधियाँ देखीं, तब वह तत्काल अपने प्रधानमंत्री भास्कराचार्य और सेनापति रणधीरभान के साथ युद्ध-योजना बनाने में जुट गए। उन्होंने सीमांत किलों को मजबूत किया, सैनिकों को युद्ध की तैयारी के लिए दो माह का समय दिया, और नागरिकों को नगरों में सुरक्षित स्थानों पर भेज दिया। दुर्ग की दीवारों पर तेल की भारी मात्रा जमा की गई थी, ताकि हमला होने पर खौलते तेल से शत्रु को रोका जा सके।
अमर्त्यनगर की सेना तीन दिशाओं से आगे बढ़ी – उत्तर, पूर्व और दक्षिण से। अर्जुनकेतु ने सोचा था कि सिंहगिरि की दीवारें तीन ओर से टूट जाएँगी, पर वह दुर्ग की चतुर वास्तुशिल्प और भीतर छिपे हुए रहस्यों से अनभिज्ञ था।
पहला आक्रमण
पूर्णिमा की रात थी, जब अमर्त्यनगर की सेना ने सिंहगिरि पर पहला आक्रमण किया। चारों दिशाओं में युद्ध के नगाड़े बज उठे। तीरों की वर्षा, तलवारों की टंकार और हाथियों की चिंघाड़ से धरती काँप उठी। रणधीरभान ने उत्तर के मोर्चे को संभाला और दो दिन तक लगातार हमला रोका। खौलते तेल, पत्थर-गोले और गुप्त द्वारों से निकलती सैनिक टुकड़ियाँ – दुर्ग की हर ईंट जैसे युद्ध के लिए जाग उठी थी।
कूटनीति का प्रयोग
जब अर्जुनकेतु ने देखा कि सीधा आक्रमण विफल हो रहा है, तब उसने गुप्तचरों के माध्यम से भीतर से सिंहगिरि को तोड़ने की योजना बनाई। उसने स्वर्ण-मुद्राओं से प्रलोभन देकर दुर्ग के एक द्वारपाल भीमराज को तोड़ने का प्रयास किया। परंतु भीमराज ने उस प्रस्ताव को लेकर स्वयं महाराज के समक्ष प्रस्तुत किया। यह देख महाराज ने उसे ‘धर्मवीर’ की उपाधि देकर अपनी निष्ठा का प्रतीक बना दिया।
अब युद्ध केवल तलवारों का नहीं रहा, अब यह राजनैतिक बुद्धि और रणनीति की टक्कर बन चुका था।
गुप्त मार्ग का रहस्य
सिंहगिरि दुर्ग के भीतर एक प्राचीन सुरंग थी, जो सीधे शत्रु की पंक्तियों के पीछे निकलती थी। यह मार्ग केवल महाराज और रणधीरभान को ज्ञात था। उन्होंने एक विशेष टुकड़ी तैयार की – जिनमें केवल 500 विशेष प्रशिक्षित सैनिक थे। रात के तीसरे पहर जब अमर्त्यनगर के सैनिक विश्राम में थे, ये 500 सैनिक उनके शिविरों में जा पहुँचे और बारूद से भरे गोदामों को विस्फोट से उड़ा दिया।
अर्जुनकेतु हतप्रभ रह गया। उसके पास अब पर्याप्त शस्त्र नहीं बचे थे। उसकी सेना की आधी रसद और अस्त्र-शस्त्र राख में बदल चुके थे।
निर्णायक युद्ध
तीसरे सप्ताह में अंतिम युद्ध हुआ। यह युद्ध सिंहगिरि के मैदान में लड़ा गया। दोनों सेनाएँ आमने-सामने थीं। रणधीरभान ने स्वयं महाराज के साथ तलवार उठाई। अर्जुनकेतु ने अपने विशेष कमांडरों को सामने रखा। सूरज की पहली किरण के साथ युद्ध आरंभ हुआ। खून की नदियाँ बहीं, योद्धाओं के सिर धड़ से अलग हुए, और घोड़े, हाथी सब पागल हो उठे।
रणधीरभान और अर्जुनकेतु आमने-सामने आए। एक घंटे तक दोनों में घमासान युद्ध होता रहा। अंततः रणधीरभान की तलवार अर्जुनकेतु की ढाल चीरती हुई उसकी छाती में धँस गई। अर्जुनकेतु घोड़े से गिरा और वहीं उसने अंतिम साँस ली।
युद्ध के बाद
अमर्त्यनगर की सेना ने अपने राजा की मृत्यु देख आत्मसमर्पण कर दिया। महाराज विरेंद्रसेन ने उन्हें दया दी, परंतु उन्हें उनके राज्य में लौटने से पूर्व शपथ दिलवाई कि वे भविष्य में कभी दुर्गवर्धन की सीमा की ओर नहीं बढ़ेंगे।
सिंहगिरि दुर्ग की दीवारें अब और भी ऊँची और मजबूत कर दी गईं। रणधीरभान को “सिंहविजयी” की उपाधि मिली, और उसकी प्रतिमा नगर के मुख्य द्वार पर स्थापित की गई।
यह युद्ध केवल तलवारों का नहीं था, यह निष्ठा, रणनीति और साहस की परीक्षा थी। सिंहगिरि की धरती पर रचा गया यह युद्ध इतिहास के पन्नों में ‘रक्त की पुकार’ के नाम से अमर हो गया।
समाप्त।
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