चाय और तुम्हीं
दो अजनबी, दो अलग ज़िंदगियाँ, एक प्याली चाय और एक बेहद ख़ास इत्तिफ़ाक़
चाय और तुम्हीं: दिल्ली की एक बरसाती शाम थी। सड़कों पर रेंगती कारें, भीगते लोग, और हवा में घुली हुई मिट्टी की ख़ुशबू — यही उस शहर का वो चेहरा था जिससे हर कोई कहीं न कहीं मोहब्बत कर बैठता है। लेकिन उस दिन, दो ज़िंदगियाँ जो कभी एक-दूसरे से टकराने की सोच भी नहीं सकती थीं, उन्हें जोड़ दिया एक छोटे से ठेले की अदरक वाली चाय ने।
आर्या एक अकेली रहने वाली लेखिका थी। तीस के करीब उम्र, कंधे तक कटे बाल, आँखों पर हल्का चश्मा, और चेहरे पर ऐसा ठहराव जो एकांत में जीने वालों के पास होता है। उसने विवाह को कभी ज़रूरत नहीं माना। अपने किराए के छोटे से फ्लैट में किताबें ही उसकी दुनिया थीं, और खिड़की के पास रखी पुरानी डेस्क पर हर रात शब्दों से रिश्ते बनते और टूटते।
वह अक्सर शाम को झील के पास एक ठेले पर जाकर चाय पीती थी — सिर्फ़ इसलिए नहीं कि वह चाय लाजवाब थी, बल्कि इसलिए कि उस ठेलेवाले की खामोश मुस्कान उसे सुकून देती थी।
उधर, जय, एक बिज़नेस कंसल्टेंट था, तेज़, व्यस्त, और हमेशा वक्त से आगे चलने की कोशिश करता हुआ। वह अपनी खुद की कंपनी चला रहा था, लेकिन अंदर से बेहद अकेला। उसके जीवन में सब कुछ योजनाबद्ध था — सिवाय उस एक दिन के, जब उसे भीगते-भीगते वही चाय का ठेला मिल गया जहाँ आर्या हर शाम बैठती थी।
“एक चाय,” उसने कहा, और आर्या ने चौंककर उसकी तरफ देखा।
“तुम भी यहाँ आते हो?” उसने पूछा।
“पहली बार,” जय ने जवाब दिया, “बारिश ने रुकने पर मजबूर किया।”
दोनों मुस्कुराए — और उसी मुस्कान में कुछ जुड़ गया।
उस दिन सिर्फ़ चाय नहीं बनी, बल्कि एक आदत बन गई। हर शाम, दोनों उसी ठेले पर मिलते। जय का जीवन एकदम अलग था — हाई-प्रोफ़ाइल क्लाइंट्स, लंच मीटिंग्स, इवेंट्स और हर रोज़ एक नई डेडलाइन। और आर्या — वह अपने उपन्यासों में उलझी हुई, असल जीवन से कुछ दूरी बनाए रखने वाली।
पर उस चाय के ठेले पर, न कोई करियर था, न स्टेटस। सिर्फ़ एक टीन का बेंच, बारिश की कुछ बूँदें, और दो अजनबी, जो एक-दूसरे में अपनी-अपनी अधूरी कहानियाँ ढूँढ रहे थे।
“तुम इतनी कम बोलती हो,” जय एक दिन बोला।
“मैं ज़्यादा सुनना पसंद करती हूँ,” आर्या ने जवाब दिया।
धीरे-धीरे जय ने महसूस किया कि आर्या उसके जीवन की वह ख़ाली जगह भर रही है, जहाँ कोई जल्दबाज़ी नहीं, कोई शोर नहीं। और आर्या को पहली बार किसी के साथ चाय पीना अकेलापन नहीं लगा।
लेकिन जैसे ही रिश्ते गहराने लगे, एक दीवार सामने आ खड़ी हुई — आर्या का अतीत।
एक शाम, जब जय ने उसे अपने घर पर डिनर के लिए बुलाया, आर्या ने मना कर दिया।
“मुझे तुम्हारा साथ अच्छा लगता है, जय। लेकिन मैं किसी रिश्ते की कल्पना नहीं कर सकती,” उसने कहा।
“क्यों?”
“क्योंकि मैंने कभी किसी को खोया नहीं, लेकिन देखा है माँ को टूटते हुए। पापा ने उन्हें छोड़ दिया था। और फिर मैंने खुद से वादा किया, मैं कभी किसी से नहीं जुड़ूँगी इस कदर कि टूटने का डर लगे।”
जय चुप था। कुछ देर तक।
फिर बोला, “कभी-कभी कोई तुम्हें जोड़ने नहीं आता, बस इतना कहने आता है कि अब और टूटना नहीं होगा।”
आर्या की आँखें नम थीं, लेकिन वह चुप रही।
अगले कुछ दिनों तक वह चाय के ठेले पर नहीं आई।
जय हर दिन आया। बैठा, अकेले चाय पी, और चला गया।
फिर एक दिन, उसने आर्या के दरवाज़े पर एक किताब छोड़ी — “चाय और तुम्हीं” — एक पांडुलिपि थी, उसके ही लिखे शब्दों से भरी, लेकिन आख़िरी पन्ना जय ने लिखा था।
“हर शाम की तरह तुम भी धीरे-धीरे आई ज़िंदगी में — बिना शोर के। तुमने सिखाया कि इंतज़ार का भी एक अलग स्वाद होता है, ठीक अदरक वाली चाय की तरह — जो शुरुआत में तीखी लगे, पर दिल में बस जाती है।”
उस पन्ने के साथ एक छोटी सी चिट्ठी थी —
“कल भी वहीं बैठा मिलूँगा, अगर तुम आओगी।”
अगले दिन, बारिश नहीं हुई। लेकिन आर्या आई।
जय चुपचाप बैठा था।
“आज चाय मेरी तरफ़ से,” आर्या बोली।
“और तुम्हीं?”
“हमेशा की तरह,” वह मुस्कुराई।
दोनों चाय पीते रहे, कोई इज़हार नहीं, कोई वादा नहीं।
बस एक ख़ामोशी, जो अब अजनबी नहीं थी।
कभी-कभी प्रेम किसी बड़े प्रस्ताव या अंगूठी से नहीं आता, वह बस एक प्याली चाय में घुला होता है, जहाँ दो लोग एक-दूसरे के मौन को समझने लगते हैं। चाय ठंडी हो सकती है, लेकिन प्रेम अगर सच्चा हो — तो वो हर बार गर्म होकर लौटता है।
समाप्त
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