फिर मिलेंगे कभी
एक ट्रेन यात्रा से शुरू हुई अनजानी मुलाक़ात जो बन गई उम्रभर की मोहब्बत
फिर मिलेंगे कभी: जुलाई का महीना था। उत्तर भारत की उमस से भरी गर्मियाँ और भीड़ से भरे रेलवे स्टेशन की अफरा-तफरी के बीच लखनऊ स्टेशन पर खड़ी थी एक पुरानी सुपरफास्ट ट्रेन — “गंगा एक्सप्रेस”। उसी ट्रेन के बी-2 डिब्बे में खिड़की के पास बैठी थी एक शांत, आत्मनिर्भर और किताबों से प्यार करने वाली लड़की — सिया। कानपुर में रहने वाली सिया अपने मामा के घर हरिद्वार जा रही थी। मन में सुकून की तलाश, दिल में अधूरी कहानियाँ, और हाथ में एक बसी हुई डायरी, जिसमें उसने कभी किसी को नहीं झाँकने दिया।
वहीं उसी डिब्बे में चढ़ा था एक लड़का — आकाश। दिल्ली में एक निजी रेडियो स्टेशन में आरजे का काम करता था, तेज़-तर्रार, बातूनी, और हर समय हँसते रहने वाला, पर अपने भीतर कहीं एक खोया हुआ सा अकेलापन लिए।
दोनों के टिकट एक ही सीट पर थे। TTE की गलती के कारण थोड़ी झिकझिक हुई, पर जल्द ही दोनों हँसकर बैठ गए।
सफ़र शुरू हुआ। ट्रेन धीरे-धीरे प्लेटफ़ॉर्म से सरकी, और साथ ही एक अनजानी यात्रा की शुरुआत हो गई।
आकाश ने पहला सवाल पूछा —
“आपका नाम?”
“सिया।”
“बहुत शांति देता है आपका नाम।”
“पर जीवन में वैसी शांति नहीं है,” वह हल्का मुस्कराई।
आकाश हँसा — “शांति अगर बाहर नहीं है, तो कोई बात नहीं… ये ट्रेन के डिब्बे में तो है।”
पहली बार सिया को किसी अजनबी की बात पसंद आई थी। उसने अपनी किताब बंद की और पूछा —
“आप क्या करते हैं?”
“बोलता हूँ… दिन भर, माइक पर।”
“मतलब?”
“आरजे हूँ। रेडियो पर दिल की बातें करता हूँ, और सुनने वाले हँसते हैं, रोते हैं, सोचते हैं।”
उस शाम ट्रेन ने इटावा पार किया, और बातों ने उनकी दूरी। दोनों ने खाना साथ खाया, सिया ने आकाश को अपनी डायरी के कुछ पन्ने सुनाए, जो कविता जैसी थीं।
“ये छंद नहीं, एहसास हैं,” आकाश ने कहा।
रात बढ़ती गई। बर्थ पर लेटे हुए भी उनकी बातचीत चलती रही — राजनीति से लेकर पुराने गीतों तक, बचपन की स्मृतियों से लेकर सपनों की योजना तक।
सुबह हुई तो हरिद्वार स्टेशन करीब आ गया था।
“हम फिर मिलेंगे?” आकाश ने पूछा।
“कभी… शायद…” सिया ने उत्तर दिया।
वह उतर गई, ट्रेन चल पड़ी। आकाश को पहली बार किसी से बिछड़ने का दुख हुआ जिसे वह कल तक जानता भी नहीं था।
कुछ हफ़्ते बीते। आकाश की आवाज़ हर दिन रेडियो पर गूंजती रही, लेकिन उसकी बातों में अब कुछ अलग था। उसके शब्दों में एक सुकून था, एक इंतज़ार, जो हर सुनने वाले को महसूस होने लगा।
फिर एक दिन, रेडियो स्टेशन पर एक चिट्ठी आई — सुनहरी काग़ज़ पर सिया की लिखावट में।
“मैं हर सुबह तुम्हारी आवाज़ सुनती हूँ। वो बातें जो तुम सबको कहते हो, उनमें मैं खुद को पाती हूँ। क्या रेडियो के पार बैठा कोई तुम्हारा इंतज़ार कर सकता है?”
आकाश ने उसी शाम अपने शो में सब कुछ कह दिया —
“कभी एक ट्रेन सफ़र में, एक लड़की मिली थी — वो पढ़ती थी, लिखती थी, और खामोश रहकर भी दिल छू लेती थी। अगर वो सुन रही है, तो उसे कहना चाहता हूँ — अब कभी ‘शायद’ मत कहना। हम फिर मिलेंगे… ज़रूर मिलेंगे।”
हफ़्ते बीतते गए। चिट्ठियों का आदान-प्रदान हुआ। फिर कॉल्स, फिर वीडियो चैट, फिर एक दिन — एक साथ सफर का वादा।
सिया दिल्ली आई, रेडियो स्टेशन के बाहर खड़ी रही — आकाश बाहर आया, फूल नहीं, सवाल नहीं — बस एक मुस्कराहट और एक खुली बाँहों की दुनिया।
उन्होंने साथ रहना शुरू किया। एक छोटा सा किराए का फ्लैट, जहाँ सिया खिड़की के पास बैठकर लिखती और आकाश रेडियो के लिए अपनी स्क्रिप्ट तैयार करता। उनका जीवन बड़ा नहीं था, पर खूबसूरत था।
कुछ सालों बाद, शादी हुई — बेहद सादगी से। दो गवाह, दो हस्ताक्षर, और एक कविता जो सिया ने खुद पढ़ी:
“जिस स्टेशन से सफर शुरू हुआ,
उस यात्रा में अब कोई अंत नहीं है।
चाय की खुशबू हो, या खामोशियाँ,
अब सब कुछ तुम्हारे साथ मुकम्मल है।”
आज वे दोनों एक लोकप्रिय पॉडकास्ट चलाते हैं — “सफर तेरे साथ”, जहाँ वे प्रेम, यात्रा, और ज़िंदगी के रंगों पर बातचीत करते हैं।
कभी-कभी प्रेम न किसी एप पर होता है, न किताब के पन्नों में… वह होता है एक संयोग में, जो अगर सच्चा हो, तो रास्ते ढूंढ ही लेता है — ट्रेन के कोच से लेकर जीवन के मंच तक।
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समाप्त
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